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________________ प्रतापना। सं० १६१, १९५, ७५८, १०३१, १२२४, १४४८, १६६१ अतएव इस गच्छमें कुल सात शान्माचार्य हुए। श्री माहटाजीने १४१८ में खर्गत होने वाले शान्माचार्यके नाम कुछ प्रतिष्ठा लेख चढाये हैं (पृ० १९२) किन्तु संवत् मिलाकर देखनेसे पता चलता है कि वे लेख सं०१४५६, १४५८, १९६२ के हैं अतएव वे १९४८ में खर्गत होने वाले शास्याचार्यके हो नहीं सकते । इसलिये उक्त संवत्के लेखोंमें सूचित शान्याचार्य सं० १११८ में खर्गत होने वाले शान्माचार्यसे भिन्न होने चाहिए । या शान्याचार्य के स्वर्गमनसंवतमें कुछ. भ्रम मानना चाहिए। इनके अलावा जीवविचार, चैत्यवन्दनसूत्रमहाभाष्य,' वृहत् शान्तिस्तोत्र' इत्यादि प्रन्योंके रचयिता भी शान्तिसूरि हैं, इनका कुछ मी विशेष परिचय प्रन्यान्तमें दिया नहीं गया। अत एष कहना कठिन है कि उक्त शान्स्पाचार्योसे ये मिल थे या उनमेंसे किसी एक से बमिल थे। इन सब शान्याचार्योंमसे प्रस्तुत प्रन्थ वार्तिक और उसकी प्रतिके रचयिता कौन थे इसका निर्णय करना अब प्रस्तुत है। १ वार्तिक और चिके कर्ता शान्त्याचार्यइन सभी आचामिसे प्रस्तुत वार्तिक और रतिके कर्ता शाम्याचार्य नं० २ ही संभव है। यद्यपि वार्तिक वृत्तिके अन्तमें उसके कर्ताने अपने गुरुका नाम वर्धमान बताया है किन्तु पूर्णतल्ल गच्छका उल्लेख नहीं किया है। किन्तु उल्लिखित चन्द्रकुल में ही पूर्णतगच्छ हुआ है यह बात निर्विवाद होनेसे निःसंदेह कहा जा सकता है कि नं. २ शान्याचार्यसे ही बार्तिक और इत्तिके कर्ता शान्याचार्यका अमेद है अन्यसे नहीं । क्यों कि उपरिनिर्दिष्ट आचायमिसेनं. १ हो नहीं सकते क्योंकि नं.१ के गुरुका नाम विजयसिंह था । नं. ३हो नहीं सकते क्योंकि उनके गुरुका नाम नेमिचन्द्र है। नं. ५ के साथ अमेद सिद्ध करने के लिये कोई प्रमाण नहीं क्योंकि नं. १ के शान्माचार्यके गुरुके मामका पता नहीं। नं. ५ के गुरुका नाम भद्रेश्वर है। नं. ६ समतिके शिष्य थे। नं. ७ इनके गुरुका नाम कल्याणविजय है । नं. ८ गुरुका नाम महेन्द्र है । या 'सन्ताने' शब्दका अर्थ 'परंपरामें' ऐसा करें तो गुरुका नाम अज्ञात है। यपि इनका परिचय आ० उदयप्रभने एक प्रबल दार्शनिकरूपसे दिया है । किन्तु गुरुका इसकेको संस्करण निकले है। भारमानन्दसभाद्वारा प्रकाशित। । संघनो भंगर, पाटन, 4. १०२५.१०.१९८१,२०१७। भाचार्य हेमचय भी चबाडके पूर्णता गच्छमें हुए हैंदेखो प्रभावकारित, पृ.१५ प्रबन्धकोष, पू. Jain Education International • For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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