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शाखाचार्य और उनका समय। माम निषित न होनेसे या महेन्द्र होने की संभावना होनेसे प्रस्तुत शाम्याचार्य के साथ इनका अमेद हो नहीं सकता।
नागेन्द्र गच्छमें भी दो वर्धमान हुए है। दूसरेका अस्तित्व १२९९ में था। इनके शिष्य पातिककार हो नहीं सकते क्योंकि बार्तिक की कारिकाएँ इसके पूर्ववर्ती ग्रन्थकारोंमें उद्धृत हैं। प्रथम वर्धमानके पधर रामसूरि थे, शान्लाचार्यका उल्लेख पावररूपसे नहीं किया गया हैदेखो जैनसाहिल्यनो सं० इतिहास पृ० ३४३ । इसलिये बार्तिककारका गच्छ नागेन्द्र हो महीं सकता।
म. ९ इनका समय १३८७ है । और बार्तिककारका समय बहुत पहले है। म. १० गुरुका नाम बादीदेव है। नं. ११ गुरुका नाम वर्धमान नहीं.
अतएव जितने शान्त्याचार्य हमें ज्ञात है उनमेंसे यदि किसीके साथ बार्तिक और रतिके रचयिता शान्स्याचार्यका अमेद होनेकी संभावना करनी हो तो वह, नं. २ के साथ ही हो सकती है । नं. २ के शान्माचार्यके गुरुका नाम वर्धमान है, और बार्तिककारके गुरुका नाम मी वर्धमान है। दूसरे गच्छोंके शान्ल्याचार्योंके साथ वार्तिककारका अमेद सिद्ध हो नहीं सकता तब उनका गच्छ मी पूर्णता मानना उचित है । अतएव यही मानना ठीक है कि बार्तिककार शाम्माचार्य पूर्णतजगच्छके वर्धमानके शिष्य थे।
पं० लालचन्द्रजीने भी इन्ही शान्त्याचार्यको वार्तिकरत्रिक कर्तारपसे माना है । उन्होंने अपनी मान्यताके लिये कोई युक्ति नहीं दी । किन्तु उनका कपन उक्त समर्थनके कारण युक्ति. संगत है। जेसल० अप्रसि० पृ० ५९ । श्री मो. द. देसाईने मी पं० लालचन्द्र के मतानुसार अपना मत स्थिर किया है-जैन० सा० पृ० २३० ।
२ शान्त्याचार्यका समय निर्णय
पं० लालचनजीने शाम्स्याचार्यका समय ११ और १२ वी शताब्दीके मध्य माना है। उनकी यह मान्यता मी ठीक जंचती है।
उत्पादादिसिद्धि में उसके कर्ताने बार्तिक और उसकी रत्तिका काफी उपयोग किया है। बार्तिककी का. २३,२५,२९,३०,३१,३४ और ३५ उत्पादादिसिद्धिकी टीकामें उड़त है। बार्तिकहत्तिकी विषयोपसंहारके लिये निबद्ध एक कारिका मी उत्पादादिसिद्धिटीकामें उड़त है। सर्वज्ञवादमें मीमांसकका समूचा पूर्वपक्ष शम्दशः बार्तिकत्तिमें से लेकर उत्पादादिसिद्धिमें दिया गया है। उत्पा० की अपोह चर्चा भी वार्तिक वृत्तिसे प्रभावित है-उत्पादा० पृ. ६७
और प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० ९६ । सटीक उत्पादादिसिद्धिके कर्ता चन्द्रसेनाचार्य आचार्य हेमचन्द्रके गुरु भाइ प्रद्युम्न सूरिके शिष्य थे । उनका समय उन्होंने स्वयं अपनी उत्पादादिसिद्धिकी टीकाके अन्तमें दिया है उससे पता चलता है कि उन्होंने उक्त ग्रन्थको १२०७ वि० में समाप्त किया
देखो बार्तिककी कमाका परिशिष्ठ। २ देखो, प्रस्तुत प्रन्यके 'टिप्पणानि' ए. २०३। वही
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