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. प्रस्तावना ।
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था' । अत एव वार्तिक और वार्तिक वृत्तिकी रचना वि० १२०७ के पहले हो चुकी थी ऐसा सिद्ध है ।
स्याद्वादरत्नाकर ( पृ० १२३२ ) में भी वार्तिककी कारिका नं० ५३ उद्धृत है । स्याद्वादरत्नाकरके कर्ता वादी देव सूरिने १९७४ में आचार्यपद प्राप्त किया था और उनका स्वर्गवास वि० १२२६ में हुआ । अत एव सं० १९७४ से १२२६ के बीचमें स्याद्वादरत्नाकरकी रचना हुई है। अत एव कहा जा सकता है कि वार्तिककी रचना सं० १९७४ से पहले हुई ।
न्यायावतारकी सिद्धर्षिकृत टीकाका टिप्पण आ० देवभद्रकी रचना है। आचार्य देवभवने मधारी हेमचन्द्र से अध्ययन करते करते उसकी रचना की थी । आचार्य मलधारी हेमचन्द्रकी अंतिम रचना विशेषावश्यक बृहद्वृत्ति सं० १९७५ में पूर्ण हुई थी । अतएव उनसे पढनेवाले देवभवने इसी समय के आसपास टिप्पणकी रचना की होगी । अतएव टिप्पणीमें उद्धृत' 'वार्तिककी रचना सं० १९७५ के पहले माननेमें कोई आपत्ति नहीं ।
इस प्रकार शान्ख्याचार्यकी उत्तरावधि वि० १९७५ मानना संगत है।
शास्याचार्यने वार्तिकवृत्तिमें सम्मतिटीकाका कई स्थानोंमें उपयोग किया है। १०९६ वि० में स्वर्गस्थ होनेवाले वादी वेताल शान्स्याचार्यने ( नं. १) अभयदेवको प्रमाणशास्त्र के गुरुरूपसे उल्लिखित किया है। अभयदेवके शिष्य धनेश्वर और जिनेश्वर मुंजराजकी समाके प्रतिष्ठित पंडित थे । मुंजराजकी मृत्यु वि० सं० १०५० से १०५४ के बीच हुई । अतएव मुंजराजकी सभामें मान पानेवाले धनेश्वर और जिनेश्वरके गुरु अभयदेवका समय विक्रम ९५० से १०५० के बीच मानना उचित है। यही पूर्वावधि वार्तिककार शान्लाचार्यकी है। अतएव वार्तिककार rement हम वि० ९०५०-११७५ के बीच में होनेवाले विद्वान् मानें तो योग्य ही होगा ।
शान्याचार्यने अनन्तवीर्य और अनन्तकीर्तिका नामोल्लेख किया है। अनन्तकीर्ति यदि बही हो जिन्होंने सर्वसिद्धिकी रचना की है, तो उनका समय श्रीप्रेमीजीने वि० सं० ८४० से १०८२ के बीच अनुमित किया है।
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अनन्तवीर्य नामके दो विद्वान् हुए हैं- एक रविभद्र शिष्य अनन्तवीर्य और दूसरे प्रमेयरतमालाकार अनन्तवीर्य" । प्रथम अनन्तवीर्य आचार्य प्रभाचन्द्र से पहले हुए हैं । आचार्य प्रभाचन्द्र वि० १०३७ से ११२२ के विद्वान् है । और दूसरे अनन्तवीर्य प्रभाचन्द्र के बाद हुए हैं। प्रस्तुतमें प्रथम अनन्तवीर्य शाम्स्याचार्यको विवक्षित है ऐसा पं० महेन्द्रकुमारजीका मन्तव्य योग्य है । अत एव अनन्तवीर्य और अनन्तकीर्तिके समय के साथ भी शान्याचार्य के समयकी पूर्वनिर्दिष्ठ मर्यादाका विरोध नहीं आता ।
३ व्याया० डि० पृ० १२ में वार्तिककी चतुर्थ कारिका उद्धत है ।
१ जेनसा० सं० इ. पृ० २०५ । २ वस्तुतः यह पृष्ठ ३०३२ होना चाहिए । गलल छा है। ४ उतरा० डीकाकी प्रशस्ति । ८५ । ६ जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४५२ । ८ वही पु० ५८
५ सम्मतितर्क प्रकरण भा. ६ प्रस्तावमा पु० ७ न्याय० मा. २ प्रस्तावना १० ६९,१५ ।
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