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________________ परिशिष्ट । [फा० २१-२८ दिमागके निराकृत पक्षाभासोका परिष्कृतरूप जैसा धर्मकीर्तिने स्थिर किया है-सिद्धसेनने भी कुछ ऐसा ही किया है १ विभाग-प्रत्मक्षनिराकृत, अनुमाननि० खवचननि० आप्तनि० प्रसिद्ध० .२ धर्मकीर्ति " प्रतीति ३ न्यायावतार , लोकनिक सिद्धसेनसंमत खवचननिराकृत ययपि दिमागकी उक्त कारिकामें नहीं किन्तु दिनागसंमत है जो कि प्रशस्तपादमें तथा कुमारिलमें है-श्लोकवा० अनु० १२,६३ | Buddhisb Logic Vol 1, सिखसेनका लोकनिराकृत और दिमामका प्रसिद्धनिराकृत अमिन है। किन्तु लोक निराकृतसे. धर्मकीर्तिसंमत प्रतीतिनिराकृत अधिक व्यापक है । प्रतीतिमें धर्मकीर्तिने सकल निकाल्पज्ञानोंका समावेश किया है। किन्तु लोकप्रसिद्धिका क्षेत्र कुछ संकुचित है ऐसा लोकविरुद्धके उदारहणसे मालम देता है-"लोकविरुद्धो यथा शुचि नरशिराकपालम् ।" न्यायप्र० प्र० २. पं० २० । “प्रतीति निराकृतो यथा चन्द्र शशीति।" न्यायबि० पृ०८४ । प्रतीतिविरुद्धका यह धर्मकीर्तिका उदाहरण नया नहीं है । उसका उल्लेख धर्मकीर्तिसे भी पहले होनेवाले कुमारिलने सर्वलोकविरुद्धके उदाहरणरूपसे किया है "चन्द्रशब्दाभिषेयत्वं शशिनो यो निषेधति। स सर्वलोकसिद्धेन चन्द्रमानेन वाध्यते ॥" श्लोकवा० अनु० ६४,६५ । तुलना करो-परी० ६.१५-२० । प्रमाणन० ६.४०-४५ प्रमाणमी० १.२.१४ । कारिका २२-२३. 'ईरितम्' पद न्यायावतारके पूर्वोक्त हेतुलक्षणका स्मारक है, देखो का०१७॥ "अन्यथानुपपन्नत्वरहिता ये विडम्बिताः। हेतुत्वेन परैस्तैषां हेत्वाभासत्वमीक्ष्यते ॥" न्यायवि० ३४३ । ३२३ । प्रमासं० का० ४०-५० न्यायवि० ३६५-७१ । न्यायप्र० पृ० ३. पं०८ । न्यायवि० ८८ से। परी० ६.२१-३९ । प्रमाणन० ६.४७-५७ । प्रमाणमी० २.१.१३-२१ । प्रमाणमी० भाषा० पृ० ९६-१०३। कारिका २४-२५. देखो प्रमाणमी० भाषा० पृ० १०४-१०८। इन दोनों कारिकामें 'न्यायविदीरिता' शब्द है। संभव है 'न्यायविद्' शब्दसे दिमाग अभिप्रेत हो। कारिका २६. देखो, प्रमाणमी० पृ० भाषा० १०८-१२४ । कारिका २७. देखो वही-पृ० २७ से । प्रमालक्ष्म २८२ । कारिका २८. "अज्ञानादेर्न सर्वत्र व्यवच्छेदः फलं न सत्।" प्रमाणसमुच्चयकी इस कारिका (१.२३) का खण्डन प्रस्तुत में है । "उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः। पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य खगोचरे ।" आप्तमी० १०२ । सर्वार्थ० १.१० । न्यायवि० ४७६ । परी० ५.१ । प्रमालक्ष्म ३१६ | प्रमाणन० ६.१-५॥ प्रमाणमी० १.१.३४,३८,४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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