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________________ . १९८ टिप्पणानि । [पृ० ३८. पं० २४__ शुभ गुप्त के मन्तव्यका सारांश यह है कि परमाणुका प्रत्यक्ष हो सकता है अत एव स्थूलपदार्थकी प्रतीतिको सिद्ध करनेके लिये खता अवयवी माननेकी कोई आवश्यकता नहीं । त्यूल अवयवीका ज्ञान भ्रम मात्र है । और भ्रमके विषयको वास्तविक मानना उचित नहीं । नै या यि कों ने अवयवीको एक और अखण्ड मानकर भी अनेक अवयवोंमें व्याप्त माना है। इस सिद्धान्तको लक्ष्यमें रखकर दूसरे दार्शनिकोंने यह आक्षेप किया है कि- अवयवीका प्रत्यक्ष ग्रहण संभव ही नहीं । क्योंकि किसी भी अवयवीके सभी अवयव कभी प्रत्यक्ष हो नहीं सकते। बहुतसे मध्यभागवर्ती और अपरभागवर्ती ऐसे अवयव हो सकते हैं जिनका प्रत्यक्ष, व्यवाहन होने के कारण, संभव ही नहीं । कतिपय अवयवके प्रत्यक्षमात्र होने से अवयवीका प्रत्यक्ष हो जायगा ऐसा भी-माना नहीं जा सकता, क्योंकि एक बात तो यह है कि वह उतने में अवयवोंमें पर्याप्त नहीं, दूसरी बात यह है कि यदि कतिपय अवयवोंके प्रत्यक्षमात्रसे संपूर्ण अवयवीका प्रत्यक्ष हो तब यह मानना पडेगा कि पानीमें डूबे हुए महास्तम्भके बाहरी कुठे है अवयवोंके दर्शनसे संपूर्ण स्तम्भ उपलब्ध हो, किन्तु यह बात प्रतीतिबाधित है । अत एवं अवयवीका प्रत्यक्ष संभव ही नहीं । इस आक्षेपके उत्तरमें नै या यि कों ने कहा है कि हम अवयवी और अवयवको अत्यन्त मिल मानते हैं। अतएव अवयवग्रहण और अवयविग्रहण का विषय भी अलग है । अनेक अवयवोंके विषयमें सकल और कतिपय ऐसा विकल्प हो सकता है किन्तु जो एक हैहै उसके विषयमें ये विकल्प असंभव हैं । अवयवी जो कि एक है - अखण्ड है उसके विषय में एकदेशसे ग्रहण और दूसरे देशसे अग्रहण संभव ही नहीं । वस्तुतः बात यह है कि जिन अवयवोंका इन्द्रियके साथ सन्निकर्ष होकर ग्रहण होता है उन अवयवोंके 'साथ' अवयवीका भी प्रहण हो जाता है किन्तु जिन अवयवोंका व्यवधानके कारण ग्रहण नहीं होता उनके 'सार अवयवीका भी ग्रहण नहीं होता। इस प्रकार ग्रहण और अग्रहण होते हुए भी अवयवीमें भेदका-अनेकताका आपादन संभव महीं । जैसे देवदत्त यदि चैत्रके साथ देखा गया और मैत्रके साथ न देखा गया तो एतावता देवदत्त दो नहीं हो जाते किन्तु एक ही रहता है वैसे ही अवयत्री कुछ अवयवोंके साथ दिखाई दे और कुछ के साथ नहीं तो एतावता वह दो नहीं हो सकता है। मै या यि कों के इस उत्तरमें एक त्रुटि तो रह ही जाती है और वह यह कि यदि अवयवी एक है- अखण्ड है-निरंश है उसमें कृत्स्नैकदेशका विकल्प संभव नहीं तब वह अपने संपूर्णरूपमें दिखाई क्यों नहीं देता ! वह भागशः क्यों दिखता है ! । जलमग्न स्तम्भ बाहर और भीतर पूर्णरूपेण क्यों नहीं दिखता है। यह कह देना कि एकमें- अखण्डमें कृस्नैकदेशका विकल्प करना अनुचित है - मूल आक्षेपका यथार्थ उत्तर नहीं है, न प्रतीतिकी पूरी व्याख्या ही है । प्रस्तुत चर्चामें अनेकान्तवाद ही सहायक हो सकता है । यदि अत्रयवीको अक्यवोंसे १. एकस्मिन् कृरखैकदेशशब्दासम्भवाद" न्यायधा० पृ० २१४। २. "इदं तस्य वृत्त बेला इन्द्रियसनिकर्पाहणमवयवाना तैः सह गृहाते । येषां अवयवानां व्यवधामादग्रहणं तैः सहन गृह्यते । न चैतस्कृतोऽस्ति भेद इति"-न्यायभा०२.१.३२। ३. न्यायवा०पृ०२१६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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