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________________ १० ३८. पं० २८] टिप्पणानि। . है । इस पर से हम यह कह सकते हैं कि स्थूल वृक्षादि पदार्थ, जिसे वैशेषि का दि अवयवी कहते हैं, वह प्रत्यक्षका विषय नहीं किन्तु अनुमेय है ऐसा किसी बौद्ध का मत न्याय सूत्र के पहले था। संभवतः वह मत सौत्रान्ति क का ही होगा क्योंकि वह बाह्य पदार्थोंको प्रत्यक्ष नही किन्तु अनुमेय मानता है। इसी सौत्रान्तिक मतका प्रतिघोष दिमाग के द्वारा स्थापित और धर्म की र्ति के द्वारा पोषित बौद्ध तार्किक परंपरामें भी हुआ । कहा जाता है कि वह बौद्ध तार्किक परंपरा सौ त्रा न्तिक और योगा चार के सिद्धान्तोंके सम्मिश्रणसे निप्पन्न हुई है । इस परंपराके अनुसार प्रमेय दो प्रकारका है-स्खलक्षण और सामान्यलक्षण"स्व-सामान्यलक्षणाभ्यां भिनलक्षणं प्रमेयान्तरं नास्ति ।"-प्रमाणसमु० ० का० २ । इसमेंसे प्रत्यक्ष का विषय खलक्षण और अनुमान का विषय सामान्य है"तस्य विषयः खलक्षणम् । तदेव परमार्थसत् । "अन्यत्सामान्यलक्षणम् । सोऽनु. मानस्य विषयः।"-न्यायबि० पु०२१-२५ । _ 'यह वृक्ष है' 'यह गौ है' इत्यादि ज्ञान जो कि सविकल्पक और सनिर्देश हैं वे सामान्य विषयक ही हैं क्योंकि स्खलक्षण तो अनिर्देश्य है । अत एव फलितार्थ यही हुआ कि दिना गा दि के मतसे अवयवी सामान्यलक्षणरूप प्रमेय होने के कारण अनुमानका विषय हो सकता है प्रत्यक्षका नहीं । दिमागका यह मन्तव्य प्राचीन सौ त्रान्ति क मान्यताका प्रतिघोष मात्र कहा जा सकता है। दिमाग ने आलम्बन परीक्षा में एक मतविशेषका उल्लेख किया है जिसके अनुसार सश्चिताकार परमाणु ही प्रत्यक्षके विषय माने गये हैं। आगे जाकर इसी मतका समर्थक भदन्त शुभ गुप्त हुआ जान पडता है। उसका कहना है कि परमाणुका उत्पाद और विनाश समुदायरूप में ही होता है । अर्थात् उसके मतानुसार परमाणुका उत्पाद और विनाश प्रत्येकक्षण में होता है पर वह असंयुक्तरूपसे न होकर संयुक्त अर्थात् सश्चितरूपसे ही होता है । जब कि परमाणु कभी खतन्त्र असंयुक्त अवस्थामें है ही नहीं तब प्रत्येक परमाणुके प्रत्यक्ष होने न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार भदन्त शुभ गुप्त ने परमाणुपुञ्जके ज्ञानको प्रत्यक्ष मानकर भी परमाणुओंमें स्थूलताके ज्ञानको स्पष्ट ही भ्रम कहा है। शुभ गुप्त भ्रमका समर्थन यह कह कर करता है कि-'जसे सदृशापरापर क्षणोंकी उत्पत्तिसे ज्ञाताको नित्यत्वका भ्रम होता है वैसेही सजातीय ओर अविच्छिन्न देशोत्पन्न परमाणुओंमें भी स्थूलताका ज्ञान मानसिक भ्रम मात्र है। १. "प्रत्यक्षो न हि बाद्यवस्तुविसरः सौत्रान्तिकैराश्रितः।" षड्द० गुण का०११। २. "स्वलभणविषयकं प्रत्यक्षमेव सामान्यलक्षणविषयकमनुमानमेव ।"-प्रभाणसमु०टी० पृ०६। ३. "स्वसं' बेचमनिदेश्य रूपमिन्द्रियगोचरः"-प्रमाणसमु०५। ४. "साधन सञ्चिताकारमिच्छन्ति किल केचन'भलम्बन०३। ५. "श्रथापि स्यात् -समुदिता एव उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति सिद्धान्तात् नैकपरमाणुप्रतिभास इति । यथोकं भदन्तशुभगुप्तेन - "प्रत्येकयानां स्वातछये नास्ति संभवः । अतोऽपि परमाणूनामेककाप्रतिभासनम् ॥' इति ।"-तत्त्वसं पं० पृ०५५१। ६. "तुल्येत्यादिना भदन्तसुभगुमख परिहारमाशंकते- 'तुल्यापरक्षणोत्पादायय: निन्यन्त्र विभ्रसः । अविच्छिन्नसजातीयग्रहे चेत्स्थूलविनमः'।"-तत्त्वसं० पृ०५५२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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