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टिप्पणानि ।
[ पृ० ३८. पं० २८
बौद्ध इस आक्षेपका जो उत्तर न्या य सूत्र कार के समय पर्यन्त देते होंगे वह यह है - जैसे सेना या वन कोई एक द्रव्य नहीं किन्तु हस्ती, अश्व आदि का समूह ही सेना और आम्रादि अनेक वृक्षों का समूह ही वन कहा जाता है । और सेनाघटक या वनघटक प्रत्येक इयादि या आम्रादिके प्रत्यक्ष न होने पर भी सेना या वनका प्रत्यक्ष होता है । वैसे ही परमाणुपुञ्ज वस्तुतः एक न होने पर भी एक मालूम पडता है और पुञ्जघटक प्रत्येक परमाणु अतीन्द्रिय होनेपर भी पुलका प्रत्यक्ष हो सकता है' ।
न्यायसूत्र कार ने सेना - वन-न्यायके अतिरिक्त बौद्ध सम्मत एक और न्यायका भी उल्लेख किया है - जैसे तैमिरिक व्यक्ति एक एक केशकी उपलब्धिका सामर्थ्य न रखते हुए भी केशसमूहका प्रत्यक्ष कर सकता है वैसे ही हम सभी यद्यपि प्रत्येक परमाणुके प्रत्यक्ष करनेमें असमर्थ हैं फिर भी परमाणुपुञ्जका प्रत्यक्ष कर पाते हैं ।
बौद्धों की इन युक्तिओं का उत्तर नै या यिकों ने यह दिया है कि अणु अतीन्द्रिय होनेसे परमाणुपुख का भी प्रत्यक्ष हो नहीं सकता' । वनघटक प्रत्येक वृक्षमें या सेनाघट प्रत्येक अंगमें प्रत्यक्ष होनेकी योग्यता है किन्तु परमाणुपुञ्जके घटक प्रत्येक परमाणुमें वैसी योग्यता नहीं । दूसरी बात यह भी है कि इन्द्रियाँ स्वविषयोंका अतिक्रमण नहीं करतीं । चक्षु कितनी ही पटु क्यों न हो फिर भी वह गन्धग्राहक नहीं हो सकती । चक्षुरिन्द्रिय के मन्द होनेसे तैमिरिक पुरुषको एक एक केश नहीं दीखता पर केशसमूह दिखाई देता है । परन्तु अतैमिरिकको एक एक केश भी दिखता है और केशसमूह भी । इससे स्पष्ट है कि केशोंमें चक्षुरिन्द्रियके विषय होनेकी योग्यता है । जब कि परमाणुमें तो वह योग्यता ही नहीं । अत एव उनका समूह भी 1 केशसमूह की तरह कैसे दिख सकता है ? ।
इतनी चर्चाका फलितार्थ इतना ही है कि यदि परमाणुको अतीन्द्रिय माना जाय तब परमाणुपुख भी अतीन्द्रिय ही रहेगा । परिणामवादी जैन, मीमांसक और सांख्य अतीन्द्रिय परमाणु या प्रकृतिकी तथापरिणति मानकर स्थूल पदार्थको इन्द्रियका विषय मानते हैं परन्तु नैयायिक वैशेषिकों ने तो स्पष्ट ही कह दिया कि परमाणु या प्रकृतिका तथापरिणाम माननेकी अपेक्षा परमाणुओंसे एक नूतन अवयवीका आरम्भ मानना ही ठीक है । क्योंकि ऐसा माननेसे परमाणु तो अपने स्वभावानुसार अतीन्द्रिय ही बने रहते हैं जब कि अवयवी स्वभावतः अतीन्द्रिय न होनेके कारण दृश्य भी बन सकता है । परन्तु बौद्ध के सामने तो यह समस्या बनी ही रह गई कि परमाणुओंके स्वयं अतीन्द्रिय होने पर भी तदभिन्न पुञ्ज दृश्य कैसे हो जाता है ! 1
इस समस्याको लेकर बौद्धों में अनेक मतभेद हुए होंगे ऐसा जान पडता है । न्या य सूत्र में बौद्ध की ओरसे पूर्वपक्ष किया गया है कि 'यह वृक्ष है' ऐसा ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमान है । इसी प्रसंग में न्याय सूत्रकार ने अवयवीको सिद्ध करके उसका प्रत्यक्ष भी सिद्ध किया
१. "सेनावनवद् ग्रहणम्" - न्यायसू० २.१.३६ । “भन्यस्तु मन्यते एकैकपरमाणुरम्यनिरपेक्ष्योऽसीन्द्रियः । बहवस्तु परस्परापेक्ष्या इन्द्रियमाझाः ।" विशप्ति० त्रिं० भाष्य० पृ० १७ । २. “केशसमूहे तैमिरिकोपलब्धिवत् तदुपलब्धिः ।" न्यायसू० ४.२.१३ । ३. "न, अतीन्द्रियत्वादणूनाम् ।"न्यायसू०.२.१.३६ । ४. “स्वविषयानतिक्रमेणेन्द्रियस्य पदमन्दभावाद्विषयग्रहणस्य तथाभावो नाविषये प्रवृत्तिः" न्यायसू० ४.२.१४ । ५. “प्रत्यक्षमनुमानमेकदेश महणावुपलब्धे ।" न्यायसू० २.१.३० ।
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