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१० ३८. पं० २८] टिप्पणानि ।
१९५ बौद्ध और जैन मान्यतामें यह भेद है कि बौद्ध परमाणुवादी हैं । अर्थात् परमाणुसे अतिरिक्त या परमाणुपुञ्जसे अतिरिक्त स्कंधकी खतन्त्र सत्ता उनके मतसे नहीं है । जैनों के मतसे पुद्गल द्रव्य अणुरूप भी है और स्कंध रूप भी है । जैन संमत स्कंध सिर्फ परमाणुपुत ही नहीं है किन्तु परमाणुओंका विशिष्ट प्रकारका परिणाम ही स्कंध है । जैन मत आरम्भवादी नैयायिकों मान्य नहीं । बौद्ध क्षणिकवादी हैं अत एव उनको भी वह मत मान्य नहीं, क्योंकि परिणामवाद द्रव्यनित्यताके खीकारमेंसे ही फलित हो सकता है।
जैनों के मतसे अवयव और अवयवीका भेदाभेद है अर्थात् कथंचित् तादात्म्य' है । नैयायिक अस्यन्त भेद मानकर भी उनको अयुतसिद्ध कहते हैं । अर्थात् दोनोंको संयुक्त नहीं मानते । वस्तुतः तादात्म्य और अयुतसिद्धिमें नाममात्रका फर्क है । विचारपद्धति के भेदके कारण ही परिभाषामें ऐसा मेद हो जाता है इस बातको भूलना नहीं चाहिए । नै या यि क किसी वस्तुका परिणाम नहीं मानते । उनके मतसे अदृश्य परमाणु दृश्यरूपसे परिणत हो नहीं सकते । फिर भी वे परमाणुओंके मिलने पर स्थूलद्रव्यके दिखाई देनेका इनकार तो कर ही नहीं सकते । अत एव उनके लिए दृश्य अवयवीकी - परमाणुपुञ्जसे अतिरिक्त अवयवीकी कल्पना करनेके सिवाय और कोई चारा ही नहीं रहता। इसीसे उन्होंने अवयवीकी सत्ताको सिद्ध तो किया पर वे उसे संयुक्त घट और जलादिकी भांति अत्यन्त भिन्न-पृथक् सिद्ध न मान कर, उसे अवयवोंसे अप्रथक्सिद्ध-अयतसिद्ध कहने लगे। इस तरह कथंचित् तादात्म्य और अयुतसिदिमें वस्तुतः नाम मात्रका मेद है।
मीमांसकों ने भी कार्य द्रव्यको सिर्क परमाणुपुञ्ज न मान कर स्वतन्त्र माना है' । खतन्त्र मान कर भी उन्होंने नै या यि कों की तरह कार्य द्रव्यको अवयवोंसे अत्यन्त भिन्न न मान कर जैनों की तरह अवयव और अवयवीका भेदाभेद ही माना है । तदनुसार अवयवोंकी विशिष्ट अवस्थामें अवस्थिति ही अवयवी कहा जाता है। मीमांसकों का यह मत उनकी परिणामवाद की खीकृतिमें से ही फलित हुआ है । परिणामवादी जैन और मीमांसक भेदाभेदवाद समानरूपसे मानते हैं जबकि सांख्य परिणामवादी होकर मी अमेदवाद ही मानता है ।
(२) अब अवयवी और प्रत्यक्ष प्रमाण-इस प्रश्नके विषयमें विचार करना क्रमप्राप्त है ।
बौद्धों ने परमाणुपुञ्जको ही माना तब उन पर आक्षेप हुआ कि परमाणु अतीन्द्रिय होनेसे परमाणुपुञ्जका भी प्रत्यक्ष हो नहीं सकता । न्याय सूत्र कार ने तो यहाँ तक कह दिया कि यदि अवयवी असिद्ध हो तो संसारमें किसी भी वस्तुका प्रत्यक्ष हो ही नहीं सकता।
.."अणवः स्कन्धा"-तस्वार्थ० ५.२५ । २. "सर्वथार्थान्तरत्वस्याभावादशाशिनोरिह"तस्वार्थश्लो०पृ० १२२। ३. "सर्वाग्रहणं अवयव्यसिद्धेः"-न्यायसूत्र २.१.३४ । १. शाखदी. पृ०४२-४३। ५. "वयं तुमिवामित्रत्वम् । न हि तन्तुभ्यः शिरःपाण्यादिभ्यो वा भययवेभ्यः निरः पटो देवदत्तो वा प्रतीयते । सन्तुपाण्यादयोऽवयवा एव पटाद्यात्मना प्रतीयन्ते । विद्यते च देवदते 'अल हसः शिरः' इत्यादिः कियानपि भेदावभास इत्युपपनमुभयात्मकस्वम् । तस्मादवयवानामेबावलान्तरमवयवी नव्यान्तरम् । त एवं हि संयोगविशेषवशादेकद्रव्यतामापचम्ते, सदात्मनामहरवं पटजाति विनवा पटबुद्या गृह्यन्ते । तेन पटारमना तेषामेकत्वं भवयवात्मना तु मानात्वम्"-शानदीपृ.१०६।.."सर्वाग्रहणमवयम्वसिद्धे।" न्यायसू० २.१.३४ ।
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