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________________ १९४ टिप्पणानि । [पृ०३८. पं०२८किया। जैन और मीमांसक भी परिणामवादी हैं किन्तु दोनोंने अनेकान्तवादके आधारसे सूक्ष्म-परमाणु और स्थूलका मेदामेद माना । परमाणुवादी-सौत्रान्तिक और वैभाषिक बौखों ने कह दिया कि स्थूल पदार्थ-और कुछ नहीं किन्तु परमाणुपुख मात्र है। भावयविवादके विरुद्ध प्रथम तो बौद्धों ने इतना ही कहा कि वह परमाणुपुख मात्र है। किन्तु दार्शनिकोंमें परमाणुकी एक परिभाषा' सढ हो गई थी कि वह निरवयव होता हैइसी परिभाषाके प्रकाशमें जब बौद्धों ने परमाणुपुञ्जका विचार किया तब इस परमाणपुलके बारेमें बौद्धों में ही तीन मत प्रचलित होगये ऐसा कमल शील के स्पष्ट उल्लेखसे मालूम होता है। "तत्र चिदाहुः परस्परं संयुज्यन्ते परमाणवः इति, सान्तरा एव नित्यं न स्पृशम्ती. स्यपरे, निरन्तरत्वे तु स्पृष्टसमेत्यन्ये ।"-तत्त्वसं० पं० पृ० ५५६ । वस्तुतः परमाणुओंका परस्पर संयोग होता है कि नहीं इस बातको लेकर ही ये मतभेद हुए है। प्रथम मतके अनुसार परमाणुओंका परस्पर संयोग होता है और अंतिम दोनों मतोंके अमुसार परमाणुओंका परस्पर संयोग नहीं होता । उन दो से एकका कहना है कि परमाशुओं में व्यवधान अवश्य होता है । और दूसरेका कहना है कि व्यवधान होता भी है और मी भी होता । जब व्यवधान नहीं होता तब परमाणु निरन्तर होनेसे उनकी 'स्पृष्ट' ऐसी संहा है। प्रथम मत प्राचीन बौद्धों का है । दूसरा काश्मीर वैभाषिकों का और तीसरा भदन्त (पबन्धु) का है', जो कि अभिधर्मकोषकार वसुबन्धु से प्राचीन है। इन तीनों मतों का साधर्म्य यही है कि जब परमाणुपुत्र होता है तब मी पुजघटक परमाणुओंके अतिरिक्त यहाँ और किसी द्रव्यकी उत्पत्ति नहीं होती । इसके विपरीत वैशेषिक और नै या पिकों का कहना है कि परमाणुपुलसे एक अपूर्व अवयवी उत्पन्न होता है। उसकी सत्ता पुजघटक परमाणुओंसे अर्थात् अवयवोंसे भिन्न है । वह समी अवयवोंको ब्याप्तकरके रहता है । अवयवी अनित्य होता है क्योंकि वह कार्य है । अणुकव्यतिरिक्त अवयवीका विनाश खख अवयवविनाशसे होता है । और व्यणुकावयवीका विनाश अणुओंके विभक्त होनेपर हो जाता है। जैनों के मतसे अवयवी कार्य ही हो यह नियम नहीं । आकाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय ये द्रव्य नित्स होते हुए भी सावयव' हैं। घटपटादि पुद्गलस्कंध अनिस्य होते हुए सावयव हैं । इन नित्य और अनित्य सावयव द्रव्यमें भेद सिर्फ इतना ही है कि निस्य द्रव्यके अवयव कमी पृथक् नहीं होते । वैशेषिक परिभाषाके अनुसार इस प्रकार कह सकते हैं कि जैनों के मतसे नित्य द्रव्यके अवयव सर्वदा अयुतसिद्ध होते हैं-अपृथक्सिद्ध होते हैं । जैनों के मतसे परमाणु और कालव्यतिरिक्त कोई ऐसा द्रव्य नहीं जो निरवयव हो । काल भी इसी लिये निरवयव माना गया है कि वह क्षणिक है अत एव उसका स्कंध बन नहीं सकता। .."वया चोकम् 'मारमाविमात्ममध्यं च तथात्माम्तमतीन्द्रियं । भविभागं विजानीयात् परमाणुमनंशकम् ।"-तरवार्थश्लो० पृ०४३०। २. आलम्बन० पृ०९६। ३. सप्रदेशी और सावयवमें सूक्ष्ममेव है किन्तु उसकी प्रस्तुतमें उपेक्षा की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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