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________________ पृ० ३८. पं० २८] टिप्पणानि । १९३ बन्धु ने स्थूलद्रव्यको एक- अखण्ड-जैसा कि नैयायिक - वैशेषिकों ने अवयगीको माना है - मानने पर मी आपति की है। उनका कहना है कि यदि स्थूल पृथ्यादि द्रव्य एक है तब उसमें गमन और अगमन, ग्रह और अग्रह, भिन्न भिन्न पदार्थों की अनेकत्र वृति, प्राप्ति और अप्राप्ति इन समीकी घटना युगपद् हो नहीं सकती । अत एव अवयवीको एकerror द्रव्य माना नहीं जा सकता' । वसुबन्धु के बाद दिमाग, धर्म कीर्ति आदि आचार्योंने अवयवीके खण्डनमें इन्हीं मुख्य दलीलोंका उपयोग किया है। और पंडित अशोक ने तो अवय विनिराकरण नामक एक छोटासा प्रकरण ही लिख दिया है । आगे चलकर अवयवी और सामान्य की चर्चा के प्रसंग में आचार्योंने बहुतसी समान दलीलोंका उपयोग किया है। क्योंकि जैसे सामान्य एक है वैसे अवयवी मी एक है । सामान्य अनेकवृत्ति है तो अवयवी मी अनेकवृत्ति है । कृत्स्नैकदेशवृत्तिका विकल्प जैसे सामान्यविषयक होता है वैसे ही भवयवीके बारेमें भी होता है। और यही बात भेदाभेदके विकल्पके विषयमें भी है। इस प्रकार अवयवी और सामान्यविषयक चर्चाका साम्य देखकर ही जयतने बौद्धोंको आवेशपूर्ण भाषामें जो उत्तर दिया है वह देखने योग्य है— " अपूर्व एष तर्कमार्गों यत्र प्रतीतिमुत्सृज्य तर्जनी विस्फोटनेन वस्तुव्यवस्थाः क्रियन्ते । ....... न च शकुमः पदे पदे वयमेभिरभिनवमल्पमपि किञ्चिदपश्यद्भिस्तदेव पुनः पुनः प्रकुर्वद्भिः शाक्यनर्तकैः सह कलहमतिमात्रं कर्तुम् । ...... किं वा तदस्ति यत्सामान्यसमर्थनावसरे न कथितम् । तस्मात्तयैव नीत्या अवयव्यपि सिद्ध एष, तज्ञाहिणः प्रत्यक्षस्य निरपवादत्वात् ।" न्यायमं० वि० पृ० ५४९ । शंकराचार्य ने भी ब्रह्म व्यतिरिक्त बाह्य तत्व अनिष्ट होनेके कारण परमाण्वारब्ध अवयatha चर्चा प्रसंग परमाणुका खण्डन व सु बन्धु की युक्ति का अवलम्बन करके किया है। सांख्य भी कार्य और कारणका अमेद इष्ट होनेसे अवयवीकी पृथक् सत्ता नहीं मानते । सांख्यत० का० ९ । इस प्रकार हम देखते हैं कि वैशेषिक सम्मत अवयवीकी सत्ताके विषयमें दार्शनिकोंने प्राचीन काल से आपत्ति की है। तब यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि इन दार्शनिकोंने जब दृश्य स्थूल अवयवीका निषेध किया अर्थात् दृश्य घटपटादिकी स्वतन्त्र सत्ताका निषेध किया तब इस दृश्य स्थूल पदार्थके विषयमें अपना क्या क्या मन्तव्य स्थिर किया ? | अद्वैतवा दिओं ने तो अविद्या - वासना का आश्रय लिया। प्रकृतिपरिणामवादी सांख्य ने स्थूल जगत्‌को प्रकृतिका परिणाम माना । अर्थात् स्थूल वस्तुका प्रधानसे अमेद ही सिद्ध १. "यदि यावदविच्छिन्नं नानेकं चक्षुषो विषयः सदेकं द्रव्यं करूप्यते पृथिव्यां क्रमेणेतिनं खादगमनमित्यर्थः । सकृत्पादप्रक्षेपेण सर्वस्य गतत्वात् । भर्वाग्भागस्य च ग्रहणं परभागत्य चाग्रहणं युगपच स्यात् । न हि तस्यैव तदानीं ग्रहणं चाग्रहणं च युक्तम् । विच्छिन्नस्य चानेकस्य हस्त्यश्वादिकस्य भनेक वृचिर्न स्यात् । यत्रैव हि एकं तत्रैवापरमिति कथं तयोर्विच्छेद इष्यते । कथं वा तदेकं यत् प्राप्तं च ताम्यां न च प्राप्त अम्बराले तच्छून्यग्रहणात् ।” - विज्ञप्ति० भा० १५ । २. ब्रह्म० शा० २.२.१२-१७ । ३. “परमाणूनां परिच्छिनत्वाद्यावत्यो दिशः षडौ दश वा तावन्निरवयवैः सावयवारले स्युः" ब्रह्म० शा० २.२.१७ । म्या० २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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