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प्रस्तावना |
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आगे किया जायगा, तथापि भगवान् महावीरने जो ऐसा किया वह किसी प्राचीन परंपराका ही अनुगमन हो तो आश्चर्य नहीं । इसी परंपराका अनुगमन करके आचार्य उमाखाती ( तस्वार्थभा० ५.३१), सिद्धसेन ( सम्मति ० १.३६ ), जिनभद्र ( विशेषा० गा० २२३२) आदि आचार्योंने अवक्तव्यको तीसरा स्थान दिया है।
(२) जब प्रथमके तीनों भंगरूपसे वाध्यताका निषेध करके वस्तुको अवक्तव्य कहा जाता है। तब स्वभावतः अवक्तव्यको मंगोंके क्रममें चौथा स्थान मिलना चाहिए । माण्दूक्योंपनिषद् में चतुष्पाद आत्माका वर्णन है । उसमें जो चतुर्थपादरूप आत्मा है वह ऐसा ही अवक्तव्य है । ऋषिने कहा है कि "नान्तमहं न बहिष्प्रशं नोभयतः प्र" ( माण्डू ० ७ ) इससे स्पष्ट है कि
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१ अन्तः प्रज्ञ २ बहिष्प्रज्ञ
३ उभयप्रज्ञ
इन तीनों अंगोंका निषेध करके उस आत्माके स्वरूपका प्रतिपादन किया गया है और फलित किया है कि “अदृष्टमव्यवहार्यममाद्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यम्" ( माण्डू ० ७ ) ऐसे आत्माको ही चतुर्थ पाद समझना चाहिए। कहना न होगा कि प्रस्तुतमें विधि-निषेध-उभय इन तीन भंगोंसे वाच्यताका निषेध करनेवाला चतुर्थ अवक्तव्य भंग विवक्षित है। ऐसी स्थिति में स्याद्वादके भंगों में अवक्तव्यको तीसरा नहीं किन्तु चौथा स्थान मिलना चाहिए। ऐसी परंपराका अनुगमन सप्तभंगीमें अवक्तव्यको चतुर्थस्थान देनेवाले आचार्य समन्तभद्र ( आप्तमी ० का ० १६) और तदनुयायी " जैनाचार्योंके द्वारा हुआ हो तो आश्चर्य नहीं । आचार्य कुन्दकुन्दने दोनों मतोंका अनुगमन किया है।
(३) स्याद्वाद के अंगोंकी विशेषता ।
स्याद्वादके भंगोंमें भ० महावीरने पूर्वोक्त चार अंगों के अतिरिक्त अन्य भंगोंकी भी योजना की है। इनके विषय में चर्चा करनेके पहले उपनिषद् निर्दिष्ट चार पक्ष, त्रिपिटके चार अव्याकृत प्रश्न, संजयके चार भंग और भ० महावीरके स्याद्वादके भंग इन सभी में परस्पर क्या विशेषता है उसकी चर्चा कर लेना विशेष उपयुक्त 1
उपनिषदोंमें माण्डूक्यको छोडकर किसी एक ऋषिने उक्त चारों पक्षोंको स्वीकृत नहीं किया । किसीने सत् पक्षको किसीने असत् पक्षको, किसीने उभय पक्षको तो किसीने अवक्तव्य पक्षको स्वीकृत किया है। जबकि माण्डूक्यने आत्माके विषयमें चारों पक्षोंको स्वीकृत किया है ।
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कि भ० बुद्ध उन प्रश्नोंका
भगवान् बुद्धके चारों अव्याकृत प्रश्नोंके विषय में तो स्पष्ट ही है कोई हा या नामें उत्तर ही देना नहीं चाहते थे अत एव वे प्रश्न अव्याकृत कहलाये । इसके विरुद्ध भगवान् महावीरने चारों पक्षोंका समन्वय करके सभी पक्षोंका अपेक्षामेदसे स्वीकार किया है। संजयके मतमें और स्याद्वादमें मेद यह है कि स्याद्वादी प्रत्येक भंगका स्पष्ट रूपसे निश्चयपूर्वक स्वीकार करता है जब कि संजय मात्र भंगजालकी रचना करके उन भंगौके विषयमें अपना अज्ञान ही प्रकट करता है। संजयका कोई निश्चय ही नहीं। वह भंगालकी
न्या• प्रस्तावना ६
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