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________________ अवक्तव्यका सान। ३ तदुभयारंभ ४ अनारंभ भगक्ती १.१.१७ ३ गुरु-लघु ४ अगुएलघु भगवती १.९.७४ १ सत्य २ मृषा ३. सत्य-मूषा " असल्यमृषा भगवती १३.७.१९३ १ आत्मतिकर २ परातकर ३ आत्मपरांतकर ४ नोआत्मांतकर-परांतकर इत्यादि स्थानांगसूत्र-२८७,२८९,३२७,३४४,३५५,३६५ । इतनी चर्चासे यह स्पष्ट है कि, विधि, निषेध, उभय और अवक्तव्य (बनुभय) ये चार पक्ष भगवान् महावीरके समय पर्यन्त स्थिर हो चुके थे इसीसे भ० महावीरने इन्हीं पक्षोंका समन्वय किया होगा-ऐसी कल्पना होती है । उस अवस्थामें स्याहादके मौलिक भंग ये फलित १ स्यात् सत् (विधि) २ स्याद् असत् (निषेध) ३ स्याद् सत् स्यादसत् (उभय) १ स्यादवक्तव्य (भनुभय) (२)भवक्तव्यका खान। इन चार भंगोमेंसे जो अंतिम भंग अवक्तव्य है वह दो प्रकारसे लब्ध हो सकता है(१) प्रथमके दो भंगरूपसे वाच्यताका निषेध करके। (२) प्रथमके तीनों भंगलपसे वाच्यताका निषेध करके । (१) जब प्रथम दो भंगडपसे वाच्यताका निषेध अभिप्रेत हो तब साभाविक तौर पर अवकन्यका स्थान तीसरा पडता हैं। यह स्थिति ऋग्वेदके ऋषिके मनकी जान पड़ती है जब कि उन्होंने सत् और अंसद संपसे जगतके आदि कारणको अवक्तव्य बताया । अत एव यदि स्यावादके भंगोंमें अवक्तव्यका तीसरा सान जैनप्रन्योंमें आता हो तो यह इतिहासकी दृष्टिसे संगत ही है । भगवती सूत्रमें जहाँ खयं भ० महावीरने स्यावादके भंगोंका विवरण किया है वहाँ अवक्तव्य भंगका स्थान तीसरा है । यपि वहाँ उसका तीसरा स्थान अन्य दृष्टिसे है, जिसका कि विवरण भगवती-११.१०.१६९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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