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________________ १० ८१.० १] टिप्पणानि । सामान्यके खरूपके विषयमें विचार करें इसके पहले यह बता देना आवश्यक है कि वस्तुतः देखा जाय तो सामान्यके बारेमें दो ही पक्ष हैं-एक पक्ष है सामान्यको पस्तुसत् मानने वालोंका जिसमें उपर्युक्त बौद्धा तिरि क सभी पक्षोंका समावेश है । और दूसरा पक्ष है सामान्पको काल्पनिक माननेवाले बौद्धोंका । अब हम पांचों पक्षोंका क्रमशः विचार करें (१) बोद्धोंका अवस्तुरूपसामान्यवाद । अन्यत्र हम कह आये हैं कि बौद्धों के मतसे दो प्रमाण हैं और विषय मी दो हैं। सबक्षणरूप वस्तुका ग्रहण करता है और अनुमान सामान्यरूप अवस्तुका । वहीं बनने खलक्षण और सामान्यमें क्या भेद है यह दिखाया है-देखो, पृ० २१०-२१५ । धर्म की र्ति ने सामान्यको वस्तुसत् माननेवालोंका विस्तारसे खण्डन प्रमाण वार्तिक तथा उसकी खोपा टीकामें किया है-प्रमाणवा० स्त्रो० पृ० १०७-३४१। समी वास्तवसामान्यवादी दार्शनिकोंके विरुद्ध बौद्ध दार्शनिकोंका कहना है कि सामान्य वस्तुसत् नहीं । सामान्यप्रतीतिका विषय बाह्य सामान्य नहीं क्योंकि बाम वस्तुएँ तो बलात विलक्षण हैं । अत एष सामान्यप्रत्यय निर्विषय है । अथवा यों कहना चाहिए कि कलित सामान्यविषयक है। परस्परव्यावृत्त ऐसे पदार्थोंसे ही एकाकारपरामर्शिनी भुद्धि उत्पन होती है जो कि पदापोंके परस्परल्यावृत्त खरूपका संवरण कर देती है अत एवं उनमें अमेरका मतिमास होने लगता है । वस्तुतः पदार्पोमें अमेद नहीं किन्तु भेद ही है। एकाकारपरामर्थ होनेका कारण विजातीयव्यावृत्ति है . "एकार्यमतिभासिन्या भावानाभिस्य मेदतः। पररूपं सरूपेण यया संवियते धिया ॥१७॥ तया संवृतनानात्वाः संवृत्या मेदिनः खयं । अमेदिन वामान्ति मेदा रूपेण केनचित् ॥ ६८॥ तस्या ममिप्रायवशात सामान्यं सत्प्रकीर्तितम् । सदसत् परमार्थेन यथा संकल्पितं तया ॥ ६९॥"प्रमाणवा०३। असन्त न्यावत ऐसे पदामि एकाकारप्रमय क्यों होता है इस प्रश्नका उचर धर्म की ति में दिया है कि "तसार यतो यतोऽर्थानां ध्यावृत्तिस्तभिवन्धनाः। जातिमेदार प्रकल्प्यन्ते तद्विशेषाधगाहिनः॥" प्रमाणवा० ३.१०। एक ही गोको अगोग्यावर होनेसे गो कहा जाता है, अपशुव्यावृत्त होनेसे पशु कहा जाता है, अन्यव्यावृत्त होनेसे द्रव्य कहा जाता है. और मसलावत होनेसे सत् कहा जाता है। इस प्रकार व्यावृत्तिके मेदसे जातिभेदकी कल्पना की जाती है । जितनी परवस्तएँ हो उतनी ध्यावत्तियाँ उस वस्तुमें कल्पित की जा सकती है। अत एव सामान्य विका विषय वस्तुसत् सामान्य नहीं । किन्तु अन्यापोह ही मानना चाहिए। .."पारमार्थिकस्स गोत्वस्य निषेधः क्रियतेन कविपवस्येति ।" कर्ण०पू०१११ । "वदात्मानमेव सनम्ती दिसामान्यविषया प्रतिमासते" प्रमाणषा० खोकर्ण० पू० ११७। ..साद पास भावनाविपररूपाणिवावस्या व्यायः वदपेक्षया ।" प्रमाणवा० सो० १० ११९ । 1. "नाबापोडविषबा मोका सामान्यगोचराः ॥ शादाबादपबैव पखुम्बेवामनबाद।" प्रमाणवाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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