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टिप्पणानि ।
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(२) वैशेषिकादिका भिन्नसामान्यवाद ।
"वैशेषिकों ने सामान्यको स्वतन्त्र पदार्थ माना है। सत्ता सामान्य एक' होकर भी अनेकवृति है । कणाद ने उसे द्रव्य गुण और कर्मसे अर्थान्तर सिद्ध करनेका मी प्रयत्न किया है । प्रशस्तपाद का कहना है कि क्योंकि वह द्रव्यादिसे अर्थान्तर है अत एव वह निम है । यदि द्रव्यादिसे अभिन्न माना जाय तो उसके नाशके साथ सामान्य भी नष्ट हो जाय । और नष्टातिरिक्त द्रव्यादिमें अनुवृत्ति प्रत्यय न हो । प्रशस्त पाद ने उसे सर्वव्यापक नहीं किन्तु विषय सर्वगत माना है । सामान्य दो प्रकारका है सत्ता पर सामान्य है और द्रव्यत्वादि अपर सामान्य है । पर सामान्य अनुवृत्तिका ही हेतु होता है अत एव वह सामान्य ही कहा जाता है किन्तु द्रव्यत्वादि अनुवृत्तिके अतिरिक्त व्यावृत्तिका मी हेतु होता है अत एव सामान्य की तरह विशेष भी कहा जाता है। अर्थात् उसे सामान्य-विशेष मी कहते हैं ।
मैयायिकों ने मी सामान्यका खरूप वैसा ही माना है । यद्यपि वार्तिक कार ने सामान्यको वैशेषिकों की तरह खविषय सर्वगत माना हैं किन्तु न्या य मंजरी कार जयन्त ने उसे सर्वसर्वमत ही माना है। क्योंकि एक और अनेकवृत्ति सामान्य यदि व्यापक न माना जाय तब अर्थात् फलित होगा कि वह एक नहीं हो सकता क्योंकि उसके अंश तो हैं नहीं जो अंशतः प्रत्येक व्यक्तिमें रहे । जयन्त ने प्रतीतिका शरण लेकर कह दिया कि वह व्यापक है। अन्तरालमें अनुपलब्धिका कारण व्यक्तिका अभाव है । व्यक्ति ही जाविव्यंजक है अत एव उसके अभाव में अन्तरालमें जातिकी अभिव्यक्ति नहीं होती' ।
[५०८१. पं० १
सामान्यको वस्तुसत् माननेवालोंका कहना है कि सामान्यप्रत्ययका विषय सामान्य उसी प्रकार वस्तुसत् है जैसे व्यावृत्तिप्रत्ययका विषय विशेष" । यदि विशेषकी सत्ता प्रतीतिके बलसे सिद्ध है तो सामान्यकी सत्ता मी प्रतीतिके बलसे ही सिद्ध है । किसी बस्तुका दर्शन करते समय उसे सजातीयोंके साथ अनुगतरूपसे तथा सजातीय और विजातीयोंसे व्यावृत्तरूपसे यदि देखा न जाय तो उसके व्यक्तित्वका ठीक ठीक निर्णय नहीं हो सकता । किसी वस्तुका निर्णीतज्ञान 'वह यह नहीं है' ऐसे व्यावृत्ति मात्रके ज्ञानसे हो नहीं सकता किन्तु उसमें अनुगत -विधानात्मक प्रत्यय 'वह घट है' इत्यादि मी - आवश्यक । जब हम उसे घटत्वेन जानते हैं तब हम उसकी पटादिसे सिर्फ व्यावृत्ति - विशेषका ही ज्ञान करते हैं यह बात नहीं किन्तु उसकी अन्य घटोंसे सजातीयता भी जानते हैं। ऐसी दशामें व्यावृत्ति - स्खलक्षण - विशेषको ही वस्तुसत् मानना और अनुवृत्तिसामान्यको काल्पनिक मानना यह युक्तिसंगत नहीं" ।
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१. "सदिति लिङ्गाविशेषाद विशेषलिङ्गाभावाच एको भावः ।" वैशे० १.२.१७ । २. "साहिति द्रव्यगुणकर्मसु सा सचा ।” वैशे० १.२.७ । ३. " द्रव्यगुणकर्मस्पोऽर्थान्तरं सचा | गुणकर्मसु च भावाच कर्म न गुणः । सामान्यविशेषाभावेन च ।" वही १.२.८-१० । ४. प्रशास्त० पू० ६७८ । ५. वही पृ० ६७७ । ६. "भावोऽनुवृतेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव । द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मवंच सामान्यानि विशेषाच ।” वैशे० १.२.४,५ । ७. न्यायसू० २.२६८ । न्यायवा० पृ० ३१५ से । न्यायमं० पृ० २९७ । ८. "न्, अनभ्युपगमात् केन सर्वगतत्वं जातेरम्युपगम्यते ? अपि तु खविषये सर्वत्र वर्तते इति सर्वगतेत्युच्यते ।” न्यायवा० पृ० ३१५ । ९. "यथा प्रतीतिरादिसति भगवती तथा वयमप्युपगच्छामः । सर्व सर्वगता जातिरिति तावदुपेयते । सर्वत्राग्रहणं तथा व्यकव्यवस्थसंविधेः ॥ न्यायमं० वि० पृ० ३१२ । १०. तत्वार्थसो० पृ० १०१ । ११. न्यायमं० पू० ३००, ३११ । शावादी० पृ० ९९ । न्यायकु० पृ० २८९ ।
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