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पृ० ८१. पं० १]
टिप्पणामि ।
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प्राभाकरों ने मी प्रतीतिका शरण लेकर जातिका अस्तित्व स्वीकृत किया है। प्राभा क नैयायिकों के समान ही जातिको व्यक्तिसे भिन्न, नित्य और एक माना है। एकाकारपरामर्शके कारण जातिका निर्णय होता है इस बातको मी स्वीकार किया है ! किन्तु कुछ बातोंमें अपना मतभेद मी प्रकट किया है। शालिक नाथ का कहना है कि द्रव्य, गुण और कर्म में सत्प्रत्ययकी अनुवृत्ति तद्गत सत्तानामक महासामान्यके कारण नहीं किन्तु सामान्य, विशेष और समवाय की तरह खरूपसत्तोपाधिक ही है ।
इस मतभेदका कारण यह मालूम होता है कि प्राभाकरों ने जातिको भा ट्टों की तरह आकाररूप माना है । और द्रव्य, गुण तथा कर्मका कोई समानाकार है ही नहीं जिससे कि I उनमें एक महासामान्य रूप सत्ता जाति मानी जाय ।
इसी प्रकार उसने शब्दगत शब्दत्व जातिका मी निषेध किया है । उसका कहना है कि सब ककारमें कत्व जाति और गकारमें गत्व जाति समानाकार के कारण सकती है किन्तु ककार और गकारमें कोई आकारसाम्य नहीं जिससे शब्दत्व जाति पृथग् मानी जाय" ।
इतना ही नहीं किन्तु उसने ब्राह्मणत्वादि जातिका भी निषेध किया है। नै या यिकों ने ' तथा भाट्टों ने ब्राह्मणत्व जातिको सिद्ध करनेके लिये प्रयत्न किया था । जातिवादके विरोघी बौद्धों ने ब्राह्मणत्व जातिका खण्डन किया है। जैनों ने भी अपने ग्रन्थोंमें जातिवादका प्रबल विरोध किया है। शालिक नाथ ने बाह्मणोंके अधिकारविशेषकी तो रक्षा की किन्तु ब्राह्मणशब्द की प्रवृत्तिके निमित्तरूपसे ब्राह्मणत्व जातिको न मानकर लोकप्रसिद्ध ब्राह्मण वंशको ब्राह्मण माना । और उन वंशोंमें होनेवालेको ब्राह्मण कहा जाय ऐसा स्पष्टीकरण करके कह दिया कि सन्ततिविशेषप्रभवत्व ही ब्राह्मणशब्दकी प्रवृत्तिमें उपाधि है । बौ द्वादि की दलीलोंके कायल होकर शालिक नाथ ने ब्राह्मण जातिका निषेध तो किया किन्तु ऐसा करके जो प्रयोजन बौद्धादिको इष्ट था वह शालिक नाथ को इष्ट न था । इस लिए उसने दार्शनिक दृष्टिसे ब्राह्मण जातिवादका निषेध करके भी लौकिक दृष्टिसे ब्राह्मणोंके अधिकारोंकी रक्षा करके ब्राह्मणों के जातिमदको पुष्ट ही किया । और इस प्रकार जातिवाद के निरासके पीछे 'जातिमद निरास की जो बौद्धादि की भावना रही उसे शालिकनाथ अपना न सका ।
शालिक नाथ ने एक ही वर्तिमें क्रमशः होनेवाली ज्वालाओंमें ज्वालात्व सामान्यका मी निरास किया है। उसका कहना है कि एकाकारप्रत्यय यदि सामान्यको बिना माने घट न
१. "संविदेव हि भगवती विषयसरवावगमे शरणम् ।” प्रकरणपं० पृ० २२ । २. तस्मात् स्वरूपसोपाधिक एव सच्छन्दो न पुनरेक माकारः सत्ता नाम द्रव्यगुणकर्मणाम् । अपि च काश्यपीयानां जाति 'समवायविशेषेषु स्वरूपसतोपाधिक एवं सच्छन्दः इत्यभ्युपगमः ।" प्रकरणपं० पृ० १९ । २. " नानाजातीयेषु द्रव्येषु सर्षपमहीधरादिषु गुणेषु गन्धरसादिषु समानाकारानुभवो भवति केवलं तु सत्सदिति 'शब्दमात्रमेव प्रयुज्यते ।" - वही पृ० २८ । ४. “न हि ककारगकारपोरे काकारमनुगतं परामृशन्ती मनीषा समुन्मिषति ।" वही पृ० ३० । ५. न्यायमं० पृ० ४२२ । ६. लोकवा० बन० २५२९ । तावा० १.२.२ । ७. धम्मपद गा० ३९३, ३९६ । कर्ण० पृ० ६१८ । प्रमाणवा० अलं० डि० पृ० १२ । तरवसं० का० ३५७५ से । ८. उत्त० २५.३३ । सम्मति० टी० पृ० ६९७ । न्यायकु० पृ० ७६७ । स्याद्वादर० पृ० ९५८ । ९. “शतशः प्रतिषिद्धायां जातौ जातिमबुद्ध किन ।" तत्वसं० का० ३५७५ ।
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