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________________ [१०८१.६०१सके तभी जातिको मानना चाहिए । प्रस्तुतमें मेदाग्रहणरूप भ्रम माननेसे काम चल जाता है गत एव ज्यालास्त्र सामान्यकी कल्पना अनावश्यक है- प्रकरणपं० पृ० ३१ । (३) सांख्यादिका अमिन्नसामान्यवाद । सोच्यो ने जड जगत्को प्रकृतिका परिणाम माना है। प्रपञ्चविस्तारमें प्रकृति अनुस्यूत है। अत एव वह सौख्यों के मतसे सामान्य है । "सांस्यैस्तु"गुण्यरूपस्य सामान्यस्याम्पगमात्"। न्यायप्र० पं० पृ०१४। किन्तु नै या यि क और वैशेषिकों के समान प्रकृतिसामान्यको एक, नित्य, व्यापक और अनुस्यूत मानते हुए भी उन्होंने उसे अपने परिणामरूप व्यक्तिओंसे अमन्त मिम नहीं माना है। नैयायिकों के मतमें भिन्न भिन्न व्यक्तियाँ सामान्यका कार्य नहीं, आश्रय है । जब कि साक्ष्यों के मतसे जो मी पुरुष व्यतिरिक्त दिखता है यह सब प्रकृतिका कार्य-नाविर्भाव-परिणाम है । नै या यि कों के समान सांख्यों ने कार्यकारणका बसन्त मेद न मान कर अत्यन्त अमेद माना है । अत एव सांख्यों के मतसे कार्य-व्यक्तिपरिणाम-विकारका कारण - प्रकृति - सामान्यसे अमेद ही है। वेदान्त के अनुसार गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये द्रव्यात्मक' ही है। तदनुसार एक मम ही पदार्थ है अत एव वही सामान्यरूप है जब कि नै या यिक संमत घटस्वादि मिल जाति द्रव्यसे असन्त भिम मानी जाती है। उसकी सिद्धि के अनुमानसे करते हैं। वेदा सपरिभाषा में कहा गया है कि-"घटोऽयमित्यादि प्रत्यक्षं हि घटस्वादिसावे मानन हुख आतित्वेपि । जातिवापखायामसिदौ सरसाधकानुमानस्याप्यनवकाशात् ।" पृ.१०। शब्दातवादी भर्तृहरि के मतसे मी शब्दबम सामान्य कहा जायगा क्योंकि सारा प्रपत्र शब्दमसे ही होता है । समीमें शब्द अनुस्यूत हैं - वाक्यप० १.१ । (१) मीमांसकोंका मिनामिन्नसामान्यवाद । मामीमांसकों ने जाति और व्यक्ति का मेदामेद माना है। जयन्त ने यह ठीक ही माक्षेप किया है कि बौद्धों के बत्तिविकल्प आदि आक्षेपोंसे डरकर ही मीमांसकों ने जाति और म्यक्तिका मेदामेद माना है। परन्तु जयन्त के आक्षेपका यदि यह मी अर्थ लिया जाय कि बौदों के भाक्षेपोंसे उरने की कोई बात नहीं। उन भाक्षेपोंसे सत्यके निकट नहीं पहुंचा जा सकता-तब तो यह एक भारी भ्रम होगा । उन आक्षेपोंसे बचकर सामान्यकी जटिल समस्याको कैसे सुलझाना इसी विचारमेंसे मी मांस कों ने जाति और व्यक्किमें मेदामेद माना यति साल्पदर्शने कर्ण. पृ० १९४, २१३। . शां. ब्रह्म०१.२.१७ ॥ 1. न्यवादिना - सामान्यमेव विषयो पो पाल्मादेवसमा सर्वस एकस्वाद" पायपि माटि०प्र०परि० न्यायप्र.टिप्पणी पृ.८४।.."मनुषिकरूपत्वा पीचीडायफेनवत् । पापा सारनपेक्षासम्पमोरगावम्" स्याहादर.१०९१ में उसत। ५. "तसाद प्रमाणबडेन मिवामित्वमेव पुकम् ।"शाखदी० पू०१००।." पचितिकल्पादिभ्यो बिभ्यतेबाम्यू. पग वनमवता इति विन्द न्यायमं०बि०पू०११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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