SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक। (२) द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक । उक्त चार दृष्टिओंका भी संक्षेप दो नयोंमें, आदेशोंमें या दृष्टिोंमें किया गया है। ये हैं व्यार्थिक और पर्यायार्थिक अर्थात् भावार्थिक । वस्तुतः देखा जाय तो काल और देशके मेदसे द्रव्योंमें विशेषताएँ अवश्य होती हैं । किसी भी विशेषता को काल या देश-क्षेत्रसे मुक्त नहीं किया जा सकता । अन्य कारणोंके साथ काल और देश भी अवश्य साधारण कारण होते हैं। अत एव काल और क्षेत्र, पर्यायोंके कारण होनेसे, यदि पर्यायोंमें समाविष्ट कर लिये जायें तब मूलतः दो ही दृष्टियाँ रह जाती हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । अतएव आचार्य सिद्धसेनने यह स्पष्ट बताया है कि भगवान महावीरके प्रवचनमें वस्तुतः येही मूल दो दृष्टियाँ हैं और शेष समी दृष्टियाँ इन्ही दों की शाखा-प्रशाखाएँ हैं। जैन आगमोंमें सात मूल नयोंकी गणना की गई है। उन सातोंके मूलमें तो ये दो नय हैं ही किन्तु 'जितने भी वचनमार्ग हो सकते हैं उतने ही नय हैं। इस सिद्धसेनके कथनको . सच मानकर यदि असंख्य नयोंकी कल्पना की जाय तब भी उन सभी नयोंका समावेश इन्ही दो नयोंमें हो जाता है ऐसी इन दो दृष्टिओंकी व्यापकता है। इन्हीं दो दृष्टिओंके प्राधान्यसे भ० महावीरने जो उपदेश दिया था उसका संकलन जैनागोमें मिलता है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो दृष्टिओंसे भगवान् महावीरका क्या अभिप्राय था यह भी भगवतीके वर्णनसे स्पष्ट हो जाता है । नारक जीवोंकी शाश्वतता और अशाश्वतता का प्रतिपादन करते हुए भगवान्ने कहा है कि अव्युच्छित्तिनयार्थताकी अपेक्षा वह शाश्वत है और व्युच्छित्तिनयार्थताकी अपेक्षासे वह अशाश्वत है । इससे स्पष्ट है कि वस्तुकी नित्यताका प्रतिपादन द्रव्यदृष्टि करती है और अनित्यताका प्रतिपादन पर्याय दृष्टि । अर्थात् द्रव्य नित्य है और पर्याय अनित्य । इसीसे यह भी फलित हो जाता है कि द्रव्यार्थिक दृष्टि अमेदगामी है और पर्यायार्थिक दृष्टि भेदगामी । क्योंकि नित्यमें अभेद होता है और अनित्यमें भेद । यह भी स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्यदृष्टि एकत्वगामी है और पर्यायदृष्टि अनेकत्वगामी क्योंकि निस्य एकरूप होता है और अनित्य वैसा नहीं । विच्छेद कालकृत, देशकृत और वस्तुकृत होता है और अविच्छेद भी । कालकृत विच्छिन्नको अनित्य, देशकृत विच्छिन्नको भिन्न और वस्तुकृत विच्छिन्नंको अनेक कहा जाता है । कालसे अविच्छिन्नको नित्य, देशसे अविच्छिन्नको अभिन्न और वस्तुकृत अविच्छिन्नको एक कहा जाता है । इस प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकका क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें सभी दृष्टिओंका समावेश सहज रीतिसे हो जाता है। भगवतीसूत्रमें पर्यायार्थिकके स्थानमें भावार्थिक शब्द भी आता है। जो सूचित करता है कि पर्याय और भाव एकार्थक हैं । (३) द्रव्यार्थिक प्रदेशार्थिक । जैसे वस्तुको द्रव्य और पर्याय दृष्टिसे देखा जाता है उसी प्रकार द्रव्य और प्रदेशकी दृष्टिसे भी देखा जा सकता है-ऐसा भगवान् महावीरका मन्तव्य है । पर्याय और प्रदेशमें क्या १ भगवती ७.२.२७३ । ११.४.५१२ । १८.१०। २ सम्मति १.३।। भनुयोगद्वार सू० १५५ । स्थानांग सू० ५५२। ४ सम्मति ३.४७ । ५ भगवती ७.२.२७९.। ६ भगवती ८.१० में भास्माकी एकानेकता की घटना बताई है। वहाँ द्रव्य और पर्यायनयका भाश्रयण स्पष्ट है। . भगवती ७.२.२०३। भगवती 16...। २५.१ । २५, इखादि। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy