________________
स्थूल और सूक्ष्मरूप इत्यादि कई कारण हैं। ये ही कारण प्रत्येक द्रष्टा और दृश्यमें प्रत्येक क्षणमें विशेषाधायक होकर नानामतोंके सर्जनमें निमित्त बनते हैं । उन कारणोंकी व्यक्तिशः गणना करना कठिन है अत एव तत्कृत विशेषोंका परिगणन भी असंभव है । इसी कारण से वस्तुतः सूक्ष्मविशेषताओंके कारण होनेवाले नानामतोंकी परिगणना भी असंभव है । जब मतोंका ही परिगणन असंभव हो तो उन मतोंके उत्थानकी करणभूत दृष्टि या अपेक्षा या नयकी परिगणना तो सुतरां असंभव है । इस असंभवको ध्यान में रखकर ही भगवान् महावीरने सभी प्रकारकी अपेक्षाओंका साधारणीकरण करनेका प्रयत्न किया है । और मध्यममार्गसे सभी प्रकारकी अपेक्षाओंका वर्गीकरण चार प्रकारमें किया है। ये चार प्रकार ये हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । इन्हींके आधार पर प्रत्येक वस्तुके भी चार प्रकार हो जाते हैं । अर्थात् द्रष्टा के पास चार दृष्टियाँ, अपेक्षाएँ, आदेश हैं और वह इन्हीं के आधार पर वस्तुदर्शन करता है । अभिप्राय यह है कि वस्तुका जो कुछ रूप हो वह उन चारमेंसे किसी एकमें अवश्य समाविष्ट हो जाता है और द्रष्टा जिस किसी दृष्टिसे वस्तु दर्शन करता है उसकी वह दृष्टि भी इन्ही चारमेंसे किसी एकमें अन्तर्गत हो जाती है।
भगवान् महावीरने कई प्रकारके विरोधोंका, इन्ही चार दृष्टिओं और वस्तुके चार रूपोंके आधार पर, परिहार किया है । जीवकी और लोककी सांतता और अनन्तता के विरोधका परिहार इन्ही चार दृष्टिओंसे जैसे किया गया है उसका वर्णन पूर्वमें हो चुका है। इसी प्रकार नित्यानित्यता के विरोधका परिहार भी उन्हीसे हो जाता है वह भी उसी प्रसंगमें स्पष्ट करदिया गया है । लोकके, परमाणुके और पुद्गलके चार मेद इन्ही दृष्टिओंको लेकर भगवती में किये गये
। परमाणुकी चरमता और अचरमताके विरोधका परिहार भी इन्ही दृष्टिओंके आधारपर किया गया है ।
कमी कभी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टिओंके स्थान में अधिक दृष्टियाँ भी बताई गई हैं । किन्तु विशेषतः इन चारसे ही काम लिया गया है । वस्तुतः चारसे अधिक दृष्टियोंको बताते समय भावके अवान्तर भेदोंको ही भावसे पृथक् करके खत स्थान दिया है। ऐसा अधिक अपेक्षा मेदों को देखनेसे स्पष्ट होता है अत एव मध्यममार्गसे उक्त चार ही दृष्टियाँ मानना न्यायोचित है।
म. महावीरने धर्मास्तिकायादि द्रव्योंको जब - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण दृष्टिसे पांच प्रकारका बताया ' तब भावविशेष गुणदृष्टिको पृथक् स्थान दिया है यह स्पष्ट है क्योंकि गुण वस्तुतः भाव अर्थात् पर्याय ही है। इसी प्रकार भगवान् ने जब करणके पांच प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावके मेदसे' बताये तब वहाँ भी प्रयोजनवशात् भावविशेष भवको पृथक् स्थान दिया है यह स्पष्ट है। इसी प्रकार जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव और संस्थान इन छः दृष्टिओसे' तुल्यताका विचार किया तब वहाँ भी भावविशेष भव और संस्थानको स्वातत्रय दिया गया है । अत एव वस्तुतः मध्यममार्ग से चार दृष्टियाँ ही प्रधानरूपसे भगवान्को अभिमत हैं ऐसा मानना उपयुक्त है ।
१ पृ० १६-२४ । २ भगवती २.१.९० । ५.८.२२० । ११.१०.४२० । १४.४.५१३ । २०.४ । ४ भगवतीसूत्र १९.९ । ५ भगवतीसूत्र १४.७. ।
३ भगवतीसूत्र १,१० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org