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________________ ५० द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । स्वीकृत किये हैं । जो अधिक भंग संख्या सूत्रमें निर्दिष्ट है वह मौलिकभंगों के भेदके कारण नहीं है किन्तु एकवचन बहुवचनके मेदकी विवक्षाके कारण ही है । यदि वचनमेदकृत संख्यावृद्धिको निकाल दिया जाय तो मौलिक भंग सात ही रह जाते हैं । अत एव जो यह कहा जाता है कि आगममें सप्तभंगी नहीं है वह भ्रममूलक है । (८) सकला देश - विकलादेशकी कल्पना भी आगमिक सप्तभंगीमें मौजुद है । आगमके अनुसार प्रथमके तीन सकलादेशी भंग हैं जब शेष विकलादेशी । बाद के दार्शनिकोंमें इस विषयको लेकर भी मतभेद हो गया' है । ऐतिहासिक दृष्टिसे गवेषणीय तो यह है कि ऐसा मत मेद क्यों और कब हुआ ? ९६. नय, आदेश या दृष्टियाँ । सप्तभंगीके विषयमें इतना जान लेनेके बाद अब भगवान्ने किन किन दृष्टिओंके आधार पर विरोधपरिहार करनेका प्रयत्न किया या एक ही धर्मिमें विरोधी अनेक धर्मोका स्वीकार किया, यह जानना आवश्यक है । भगवान् महावीरने यह देखा कि जितने भी मत पक्ष या दर्शन हैं। वे अपना एक खास पक्ष स्थापित करते हैं और विपक्षका निरास करते हैं । भगवान् ने उन सभी तत्कालीन दार्शनिकोंकी दृष्टिओं को समझनेका प्रयत्न किया । और उनको प्रतीत हुआ कि माना मनुष्योंके वस्तुदर्शनमें जो भेद हो जाता है उसका कारण केवल वस्तुकी अनेकरूपता या अनेकान्तात्मकता ही नहीं बल्कि नाना मनुष्योंके देखनेके प्रकारकी अनेकता या नानारूपता मी कारण है । इसी लिये उन्होंने सभी मतोंको, दर्शनोंको वस्तुरूपके दर्शन में योग्य स्थान दिया है । किसी मतविशेषका सर्वथा निरास नहीं किया है। निरास यदि किया है तो इस अर्थ में कि एकान्त आग्रहका विष था, अपने ही पक्षको, अपने ही मत या दर्शनको सत्य, और दूसरोंके मत, दर्शन या पक्षको मिथ्या माननेका जो कदाग्रह था, उसका निरास करके उन मतोंको एक मयारूप दिया है । प्रत्येक मतवादी कदाग्रही हो कर दूसरेके मतको मिथ्या बताते थे, वे समन्वय न कर सकनेके कारण एकान्तवादमें ही फंसते थे । भ. महावीरने उन्हीके मतोंको स्वीकार करके उनमें से कदाग्रहका • विष निकालकर समीका समन्वय करके अनेकान्तवादरूपी संजीवनी महौषधिका निर्माण किया है । कदाग्रह तब ही जा सकता है जब प्रत्येक मतकी सचाईकी कसौटी की जाय । मतोंमें सचाई जिस कारण से आती है उस कारणकी शोध करना और उस मतके समर्थनमें उस कारण को बता देना यही भ० महावीरके नयवाद, अपेक्षावाद या आदेशवादका रहस्य है । अत एव जैन आगमोंके आधारपर उन नयोंका, उन आदेशों और उन अपेक्षाओं का संकलन करना आवश्यक है जिनको लेकर भगवान् महावीर सभी तत्कालीन दर्शनों और पक्षोंकी सचाई तक पहुँच सके और जिनका आश्रय लेकर बादके जैनाचार्येने अनेकान्तवाद के महाप्रासादको नये नये दर्शन और पक्षोंकी भूमिकापर प्रतिष्ठित किया । ( १ ) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । एक ही वस्तुके विषय में जो नानामतोंकी सृष्टि होती है उसमें द्रष्टाकी रुचि और शक्ति, दर्शनका साधन, दृश्य की दैशिक और कालिकस्थिति, द्रष्टा की दैशिक और कालिकस्थिति, दृश्यका १ अकलंकप्रन्थत्रय टिप्पणी पृ० १४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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