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प्रस्तावना ।
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इसी प्रकार षट्प्रदेशिक स्कन्धके २३ भंग होते हैं । उनमें से २२ तो पूर्ववत् ही हैं किन्तु २३ वाँ यह है -
२३ (अनेक - २) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे, ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं असा पर्यायोंसे और ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायोंसे अत एव षट्प्रदेशिक स्कन्ध ( अनेक ) आत्माएँ हैं, आत्माएँ नहीं हैं और अवक्तव्य हैं। भगवती - १२.१०.४६९
इस सूत्र के अध्ययनसे हम नीचे लिखे परिणामोंपर पहुंचते हैं
(१) विधिरूप और निषेधरूप इन्ही दोनों विरोधी धर्मोका स्वीकार करनेमें ही स्याद्वादके मंगोंका उत्थान है ।
(२) दो विरोधी धर्मो के आधारपर विवक्षामेदसे शेष भंगोंकी रचना होती है ।
(३) मौलिक दो भंगोंके लिये और शेष सभी भंगोंके लिये अपेक्षाकारण अवश्य चाहिए । अर्थात् प्रत्येक भंगके लिये स्वतन्त्र दृष्टि या अपेक्षाका होना आवश्यक है । प्रत्येक भंगका स्वीकार क्यों किया जाता है इस प्रश्नका स्पष्टीकरण जिससे हो वह अपेक्षा है, आदेश है या दृष्टि है या नय है। ऐसे आदशोंके विषयमें भगवान्का मन्तव्य क्या था उसका विवेचन आगे किया जायगा ।
(४) इन्ही अपेक्षाओं की सूचनाके लिये प्रत्येक मंगवाक्यमें 'स्यात्' ऐसा पद रखा जाता है । इसीसे यह बाद स्याद्वाद कहलाता है। इस और अन्य सूत्रके आधारसे इतना निश्चित है। कि जिस वाक्य में साक्षात् अपेक्षाका उपादान हो वहाँ 'स्यात्' का प्रयोग नहीं किया गया है। और जहाँ अपेक्षाका साक्षात् उपादान नहीं है वहाँ स्यात् का प्रयोग किया गया है । अत एव अपेक्षाका द्योतन करनेके लिये 'स्वाद' पदका प्रयोग करना चाहिए यह मन्तव्य इस सूत्र से फलित होता है।
(५) जैसा पहले बताया है स्याद्वादके भंगोंमेंसे प्रथमके चार भंगकी सामग्री अर्थात् चार विरोधी पक्ष तो भ महावीरके सामने थे । उन्ही पक्षोंके आधार पर स्याद्वादके प्रथम चार मंगोंकी योजना भगवान्ने की है। किन्तु शेष भंगों की योजना भगवानूकी अपनी है ऐसा प्रतीत होता है। शेष मंग प्रथमके चारोंका विविधरीतिसे संमेलन ही है । भंगविद्या में कुशले भगवान्के लिये ऐसी योजना कर देना कोई कठिन बात नहीं कही जा सकती ।
(६) अवकव्य यह भंग तीसरा है। कुछ जैनदार्शनिकोंने इस भंगको चौथा स्थान दिया है । आगममें अवक्तव्यका चौथा स्थान है । अत एव यह विचारणीय है कि अवक्तव्यको चौथा स्थान कबसे किसने क्यों दिया ।
(७) स्याद्वादके भंगोंमें सभी विरोधी धर्मयुगलों को लेकर सात ही भंग होने चाहिए, न कम, न अधिक, ऐसी जो जैनदार्शनिकोंने व्यवस्था की है वह निर्मूल नहीं है। क्योंकि त्रिप्रदेशिक स्कंध और उससे अधिक प्रदेशिक स्कंधोंके अंगोंकी संख्या जो प्रस्तुत सूत्रमें दी गई है उससे यही मालूम होता है कि मूल भंग सात वे ही हैं जो जैनदार्शनिकोंने अपने सप्तभंगीके विवेचन में
१ प्रस्तुत अनेकका अर्थ पथायोग्य कर लेना चाहिए । २ भंगोकी योजनाका कौशल्य देखना हो तो भगवती सूत्र ० ९४० ५ इत्यादि देखना चाहिए ।
.म्या प्रस्तावना ७
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