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________________ पू० २५. पं० १०] टिप्पणानि । न्या यकुमुद चन्द्र और उस पर संपादककृत टिप्पणियाँ पृ० ६४-६६ । तथा प्रमेयक पृ० ५२-५९। ४० २३. पं० २९. 'स्मृतेः प्रमोष' प्राभा क र समत स्मृतिप्रमोषका विस्तृत खण्डन सर्वप्रथम प्रज्ञा करगुप्त ने किया जान पडता है। देखो प्रमाणवा० अ० पृ० २५८ । तथा मुद्रित पृ० १८। तदनन्तर अन्य दार्शनिकोंने भी तदनुसारी खण्डन किया है । देखोन्यो० पृ० ५३९ । न्यामं० पृ० १६४ । तत्त्वो० पृ० १७ । तात्पर्य० पृ० ८७ । सन्मति. टी० पृ० २७,३७२ । न्यायकु० पृ० ५२ । स्याद्वादर० पृ० १०४ । शास्त्रदी० पृ. ४९ । स्मृतिप्रमोषकी स्थापनाके लिये देखो बृहती० पृ० ६४,६६,७३ । प्रकरणपं० पृ० ३२ । पृ० २४. पं० १४. 'वक्ष्यामः' देखो, ६१७. पृ० २४. पं० १७. 'अलौकिकत्वम्' अलौकिकख्याति मी मां स कै क दे शी को मान्य है। देखो प्रमाणवा० अ० पृ० २५८ । न्यायमं० पृ० १७२ । कन्दली पृ० १८१ । न्यायकु० पृ० ६४ । स्याद्वादर० पृ० १३४।। पृ० २५. पं० ३. 'प्रमाणाभावात् सन्मतिटीकामें भेदग्राहक प्रमाणाभावका जो विस्तारसे वर्णन है उसीका संक्षेप शान्त्या चार्य ने किया जान पडता है । देखो सन्मति० टी० पृ० २७३, पं० १९ । शब्दसादृश्यके लिये देखो न्यायकु० पृ० १४९ । पृ० २५. पं० १०. 'गजविकल्पायते' हरिभद्र सूरिने यो गड ष्टि स मु च य में कुतर्कके उदाहरणमें हस्तिविषयक प्राप्ताप्राप्तविकल्पोंका उल्लेख किया है और उनकी निःसारता बताई है। अत एव विकल्पोंकी निःसारता बतानेके लिये 'गजविकल्पायते' यह प्रयोग रूढ है ऐसा समझना चाहिये । उस प्रन्थका पाठ यह है - "जातिमायश्च सपोऽयं प्रतीतिफलबाधितः । हस्ती व्यापादयत्युक्तो प्रासाप्राप्तविकल्पवत् । ९१ ॥ जातिप्रायम दूषणामासप्रायन सोऽयं कुतर्कः । प्रतीतिफलबाधित इति कृत्वा । एतदेवाह-'हस्ती व्यापादयति' उक्ती मेण्डेन । किमिवेत्याह-माताप्राप्तविकल्पवत् । कवियायिकच्छात्रः कुतबिदागच्छन् अवशीभूतमत्तहस्त्याकडेन केनचिदुका 'भो भोर, परितमपस हस्ती घ्यापादयति' इति पोतदाऽपरिणतन्यायशाल भाह-रेरे बठर किमेवं युक्तिवाचं प्रलपसि। तथाहिकिमयं प्राप्तं व्यापादयति, किंवाऽप्राप्तमिति । आद्यपक्षे भवत एवं व्यापत्तिप्रसकर, प्राप्तिभाषात् ।' एवं यावदाह तायद्यस्तिना गृहीतः स कथमपि मेण्डेन मोचित इति ।" योगह पृ० ९१। प्राप्ताप्राप्त विकल्पोंके अलावा गजविकल्पोंका एक दूसरा रूप भी वादी दे वसूरि ने दर्शाया है। और उपसंहारमें कहा है कि इन विकल्पोंसे जैसे हस्तीके खरूपका अपलाप नहीं किया जा सकता वैसे ही अप्रामाणिक विकल्पोंसे प्रमाणसिद्धका निरास नहीं किया जा सकता। विकल्प ये हैं-"किामदं मन्धकारनिकुरम्बं मूलकान् कवलयति, किं वा धारिवादोऽय बलाकावान् वर्षति गर्जति च। यद्वा बान्धवोऽयं-'राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः' इति परमाचार्यवचनात् । अथवा योऽयमासनमेदिनीपृष्ठप्रतिष्ठायी पुरुषस्तस्य छायेयं स्त्यानीभूतेति ॥" स्याद्वादर० पृ० १४५। पृ० २५. पं० १०. 'मेद' मेदसाधकप्रमाणोंके विस्तारके लिये देखो, सन्मति० टी० पृ० २८५ | शम्दसादृश्यके लिये-न्यायकु० पृ० १५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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