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टिप्पणानि । [१० २३. पं० २८विपानन्द ने विस्तारसे विपर्ययका विवेचन किया है उसमें जो आहार्य विपर्यय है उसके उदाहरणोंमें समी दार्शनिकोंके मतसे मेद हो सकता है । क्योंकि जैनों के मतसे अमवाद आहार्य विपर्यय है जब कि ग्रामवाद के अनुसार मेद वाद ही आहार्य विपर्यय है । इसी प्रकार समी दार्शनिक खखशासजन्य ज्ञानको सम्यग् मानते हैं और अन्यान्य शासजन्य ज्ञानको विपरीत मानते हैं।
प्रशस्त पादने खागम दृष्टि से ऐसे आहार्य विपर्ययोंका वर्णन किया है और व्यो म शिवने उसका पल्लवन किया है-देखो० व्यो० पृ० ५४२ ।
६-प्रामाण्यचिन्ता।
जैन दर्शन संमत अनेकान्त वाद की व्यापकतामें ऐसा संदेह किया जाता है कि यदि अनेकान्त सर्वव्यापक है तब प्रमाण मी अप्रमाण होना चाहिए और अप्रमाण मी प्रमाण होना चाहिए । अन्यथा अनेकान्तको सर्ववस्तुन्यापि कैसे कहा जा सकता है। इस शंकाका समाधान विपानन्द ने विम ज्यवाद का आश्रयण करके किया है। उस प्रसंगमें कलंक की युक्तियोंका आश्रयण करके विया नन्द ने भ्रम ज्ञानका भी प्रामाण्य सिद्ध किया है । इन्द्रियदोषजन्य चन्द्रहपदर्शनमें संख्याशके विषयमें विसंवाद होनेके कारण संख्याज्ञान प्रमाण है सही पर चन्द्र के खरूपांशमें तत्त्वज्ञान-सम्यग्ज्ञान - अविसंवादि ज्ञान होने से, उस अंशमें वह हान प्रमाण ही है । अत एव कोई भ्रम एकान्ततः प्रम नहीं कहा जा सकता । हानोंमें प्रामाण्येतर व्यवस्था प्रायशः संकीर्ण है-"तेन प्रत्यक्षतदामासयोरपि प्रायशः संकीर्णप्रामाण्येतरसितिरन्नेतबा प्रसिद्धानुपडतेन्द्रियहरपि चन्द्रार्काविषु देशमस्यासत्याच. भूताकारावमासनात, तथोपहतासादेरपि संक्यादिविसंवादेपि चन्द्रादिस्वभावतत्वो. पलम्भाव।"- अष्टशती का० १०१।
यदि किसी ज्ञानमें प्रामाण्य या अप्रामाण्य नियत नहीं है तब किसी एक ज्ञानको प्रमाण और दूसरेको अप्रमाण कहा जाता है सो कैसे सिद्ध होगा। इस प्रश्नके उत्तरमें अकलंकने कहा है कि संवाद या विसंवादके प्रकर्षकी अपेक्षासे प्रामाण्य या अप्रामाण्यका व्यवहार किया जाता है। जैसे कस्तुरिकादि द्रव्यमें स्पर्शादि गुणोंकी अपेक्षा गन्धगुणकी मात्रा उत्कट होने से वह गन्धद्रव्य कहा जाता है वैसे ही जिस ज्ञानमें संवादको अपेक्षा विसंवादकी मात्रा अधिक हो उसे अप्रमाण कहा जाता है । भ्रमज्ञानोंमें संवादकी अपेक्षा विसंवादकी मात्रा अधिक है अत एव व्यवहारमें उन्हें अप्रमाण कहा जाता है-"तत्मकर्षापेक्षया व्यपदेशव्यवस्था गन्धादिद्रव्यपद्" -अष्टश० का० १०१ ।
एक और दृष्टि से मी अममें प्रामाण्याप्रामाण्यका विचार हो सकता है । खपरप्रकाशवादी जैन-बोद्ध दृष्टिसे समी प्रमझान खपरसंवेदि हैं । अत एव वे खांशमें प्रमाण और परांशमें
प्रमाण हैं-"खरूपे सर्वमभ्रान्तं पररूपे विपर्ययः" । प्रमाणवा० अ० म० पृ० ४१ । आप्तमी० का० ८३।
पृ० २३. पं० २८. 'विपरीतख्याति विपरीतख्यातिके खण्डन-मण्डनके लिऐ, देखो 1. मशती का० १०१ । भएस० पृ० २७६ । तत्स्वार्थश्लो० पृ० १७०।
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