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१० ६२. पं० १०]
टिप्पणानि। फिर कहा कि प्रमाणके निर्दिष्ट चार भेद मिथ्यादृष्टिके द्वारा परिगृहीत होनेसे अप्रमाण ही हैं। इस विचारके अनुसार उपमान यदि मिध्यादृष्टिका हो तो वह अप्रमाण ही कहा जायगा ।
एक और दृष्टि से भी उ मा खा ति ने इस विषयका विचार किया है । उनका कहना है कि शब्दनयके मतानुसार कोई जीव मिथ्यादृष्टि या अज्ञ होता ही नहीं । अत एव शब्द दृष्टिसे देखा जाय तो सभी ज्ञान प्रमाण ही हैं। प्रस्तुतमें कहना होगा कि इस विचारसे उपमान प्रमाण ही है।
३-उपमानका फल ।
उपमानके फलके विषयमें भी विवाद देखा जाता है । इस विषयमें उल्लेखनीय मतभेद नै या यि क और मीमांसकों का है।
नैयायिकों ने उपमिति को संज्ञासंझिसंबन्धप्रतीतिरूप माना है । अर्थात् अतिदेशवाक्यको सुन कर अरण्यमें जानेवाले व्यक्तिको 'अयं गवयपदवाच्यः' ऐसी जो प्रतीति होती है उसे उपमानका फल माना है। किन्तु मी मां स कों ने ऐसा नहीं माना । उनका कहना है कि उपमानका फल समाख्यासंबन्धप्रतीति नहीं किन्तु परोक्ष गौमें गवयसादृश्यका जो ज्ञान होता है अर्थात् 'मद्गृहगतो गौः गवयसदृशः' ऐसा जो ज्ञान होता है वही उपमानका फल है । अर्थात् संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतीति नहीं किन्तु परोक्षवस्तुविषयक सादृश्यज्ञान ही उपमिति है। पृ० ६२. पं० ८ 'महिष' तुलना-प्रमाणवा० अलं० पृ० ५७६ ।
पृ० ६२. पं० ८. 'सादृश्याभाव' तुलना-"स्यादेतत्-वैसादृश्यं हि सादृश्याभावः । तसादस्त्येवाभावान्तर्गतिरित्याह-अन्योन्येत्यादि । अन्योन्याभावतायां सत्यां यद्यभावरूपं प्रमेयं व्यवस्थाप्यते तदा समम् । कथमित्याह
"सारश्यस्य विवेको हि यथा तत्र प्रमीयते ।
सर्वावयवसामान्यविवेको गम्यते तथा ॥" तत्त्वसं० का० १५६०,६१ । पृ० ६२. पं० १०. "किमिदं सादृश्यम्' कुमारिल ने सादृश्यका लक्षण इस प्रकार करके उसे पृथक् वस्तु सिद्ध किया है
"सादृश्यस्यापि पस्तुत्वं न शक्यमपबाधितुम् ।
भूयोऽवयवसामान्ययोगो जात्यन्तरस्य तत् ॥१८॥" श्लोकवा० । मतलब यह है कि दो गोव्यक्तियोंमें तो गोत्वरूप एक ही जाति होनेके कारण दोमें साधर्म्य या समानता है किन्तु गो और गवयमें गोत्व या गवयत्वरूप एक जाति नहीं । गोमें गोत्व और गवयमें गवयत्व जाति भिन्न भिन्न होने पर भी दोनोंमें समानताका प्रत्यय जो होता है उसका कारण खजातिके अतिरिक्त कुछ दूसरा होना चाहिए और वही सादृश्य है । गो और गवयमें बहुतसे समान अवयवोंका जो योग है वही सादृश्य है । शास्त्र दी पि का में सादृश्यका लक्षण इस प्रकार किया गया है- "अर्थान्तरयोगिभिः संबंधिप्तामान्यैरर्थान्तरस्य ताश.
.."अप्रमाणान्येव वा। कुतः मिथ्यादर्शनपरिग्रहात्, विपरीतोपदेशाच"-तत्वार्थभा० १.१३ । २. "चेतनाज्ञवाभाव्याच सर्वजीवानां नास्य कश्चिन्मिध्यादृष्टिरज्ञो वा जीवो विद्यते तस्मादपि विपर्ययान न अयत इति । अता प्रत्यक्षानुमानोपमानातवचनानामपि प्रामाण्यमभ्यनुज्ञायत इति ॥" तत्त्वा. र्थमा०१.३५।
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