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टिप्पणानि ।
[पृ० ६२. पं० ६जैन व्याख्याकार सिद्ध र्षि ने मी उपमान प्रमाणको अनुमानके अन्तर्गत कर लिया हैन्याया० टी० पृ० २० ।
प्रमा लक्ष्म में भी उपमानका अन्तर्भाव अनुमानमें किया गया है-का० ३१६,३३४ । विवेक यह है कि प्रमा लक्ष्म कारने मी मां स क संमत उपमानको अनुमानान्तर्गत माना है
और नैयायिकसंमत उपमानको अधिगतग्राहि होनेसे शान्त र क्षित की तरह अप्रमाण ही माना है-प्रमालक्ष्म- का० ३४१ ।
(३) जैन आचार्योंने उपमानको प्रत्यभिज्ञान नामक परोक्ष प्रमाणान्तर्गत माना है। जैसे ऊर्ध्वता सामान्यको विषय करके 'स एवायं' ऐसा संकलनात्मक प्रत्यय होता है वैसे ही तिर्यग्सामान्यको लेकर 'तत्सदृशोऽयं' ऐसा संकलनात्मक प्रत्यय होता है । जैन आचार्योंके मतसे ऐसे और भी संकलनात्मक प्रलय हो सकते हैं, जैसे- 'इदमस्मात् दूरं, हखम्' इत्यादि । इन सभी प्रकारके संकलनात्मक ज्ञानोंको प्रत्यभिज्ञानके अन्तर्भूत ही माना गया है-प्रमेयक० ३.५-१०। स्याद्वादर० पृ० ४९७।
(१) वाचस्पति मिश्र ने सांख्य तत्व को मु दी में मी मां स क संमत उपमानका अन्तर्भाव प्रत्यक्षमें किया है__ "यत्तु गवयस्य चक्षुःसनिकृष्टस्य गोसादृश्यज्ञानं तत्प्रत्यक्षमेव, अत एव मर्यमाणायाँ गवि गषयसारश्यज्ञानं प्रत्यक्षम् । न हि अन्यद् गवि सादृश्यम्, अन्यथ गवये । भयोषयवसामान्ययोगो हि जात्यन्तरवती जात्यन्तरे साहश्यमुख्यते । सामान्ययोगम एकः । स वेद् गवये प्रत्यक्षो गत्यपि तथा।" सांख्यत० का० ५।
(३) नै या यि क और मी मां सकों ने ही उपमानका पृथक् प्रामाण्य माना है । वेदान्तदर्शन व्यवहारमें भट्ट न य का अनुगामि है अतः उसे मी उपमानका पृथक् प्रामाण्य इष्ट है। अन्य किसी दर्शनमें ऐसा नहीं माना गया ।
(ई) आचार्य उ मा खा ति ने उपमान का विचार नयवादरूप जैन दृष्टि से किया है अत एव उनके मतसे वह प्रमाण है मी और नहीं मी । ___ आचार्य उमा खा ति ने जब प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद करके मत्यादि पांचों ज्ञानों का उन्हीं दोमें समावेश कर दिया तब उनके सामने प्रश्न हुआ कि नै या यि का दिको सम्मत और भ ग व ती जैसे जैन शास्त्रमें निर्दिष्ट प्रमाणके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ऐसे चार भेदोंके साथ इन दो भेदोंका समन्वय कैसे करना है। आचार्य उमाखा तिने उत्तर दिया कि उन चारों प्रमाणोंका समावेश मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें कर लेना चाहिए । अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमानका मतिमें और आगमका श्रुतमें अन्तर्भाव कर देना चाहिए । इस प्रकार फलित यह होता है कि ये चारों ही प्रमाण परोक्ष प्रमाणान्तर्गत हैं। प्रस्तुतमें यह कहना चाहिए कि उपमान प्रमाण है पर वह परोक्ष है और मतिज्ञान है।
जैन दृष्टिके अनुसार जो सम्यग्दृष्टि जीव है उसीका मतिज्ञान ज्ञान है अत एव प्रमाण है। और मिथ्यादृष्टि जीवका मतिज्ञान अज्ञान है अत एव अप्रमाण है । इसी दृष्टिसे उमा खा तिने
१.भगवती ५.४.। २. तस्वार्थभा०१.१३ ।
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