SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृ० ६२. पं० ६.] टिप्पणानि । २२५ (३) प्रत्यभिज्ञामें अन्तर्भाव । (४) प्रत्यक्षमें अन्तर्भाव। (१) प्राचीन भै यायिकों ने अतिदेशवाक्यको उपमान प्रमाण माना है । उस अतिदेशवाक्य खलप उपमानका अन्तर्भाव आगममें ही हो जाता है ऐसा मी मांसकों ने, वैशेषिकों ने तथा सांख्यों ने कहा है "तस्यागमावहि वादन्यथैवोपर्णितम् । पुरुषप्रत्ययेनैव तत्रार्थः संप्रतीयते । तदीय. बचनत्वेन तलादागम एव सः॥" श्लोकवा० उप० २,३ । "मातेन मप्रसिद्धस्य गषयस्य गधा गवयप्रतिपादनापमानं भाप्तवचनमेव"-प्रशस्त पृ० ५७६ । "उपनानं तावद् 'यथा गौतथा गपया' इति वाच्यम्, सजनिता पीरागम एवं" सांस्यत० का० ५। इनमें मीमांसकों को उपमानका पृथक् प्रामाण्य इष्ट है किन्तु उनके मतसे उसका लक्षण नै या पिकों से मिल ही है । अत एष वृद्ध नै या यि कसंमत उपमानको वे बागममें अन्तर्भूत कर लेते हैं। सांख्य और वैशेषिकों को उपमानका प्रामाण्य इष्ट है किन्तु पृथक् प्रामाण्य महीं । अत एव उक्त लक्षणको वे भी आगममें ही अन्तर्भूत करदेते हैं। (२) अतिदेशवाक्यके स्पष्टतया आगमरूप होनेसे नवीन नै या यि कों ने उपमानका दूसरा लक्षण किया। इसके अनुसार अतिदेशवाक्यको सुनकर अरण्यमें जानेपर सारूप्य दर्शन होता है अर्थात् गोसदृश गवयका दर्शन होता है तब संज्ञासंझिसंबन्धप्रतिपत्ति होती है अर्थात् यह गवयपदवाप्य है ऐसी प्रतीति होती है । यह प्रतीति उपमानका फल है बत एष सारयदर्शन करण होनेसे उपमान प्रमाण कहा जाता है-ऐसा नवीन नै या पिकों ने माना । इस अपमानको तो बागममें अन्तर्भूत नहीं किया जा सकता था । अतएव उपमानको पृषक प्रमाण नही मानने वाले सांख्यों ने इसे अनुमानमें अन्तर्भूत कर लिया-“योप्ययं 'गवयशम्दो गोसरशय पाचक रति प्रत्ययः सोऽपि अनुमानमेव । यो हि शब्दो पत्र प्रवेः प्रयुज्यते सोऽसतित्यन्तरे वसवाचका, यथा गोशदो गोत्वस्य, प्रयुज्यते च गपशब्दो गोलच्छति तस्यैव पाचक रति सज्जानमनुमानमेष" सांस्यत० का० ५।। नवीन नै यायिकों के इस लक्षणको मी शान्तरक्षित ठीक नहीं समझते । उनका कहना है कि अतिदेशवाक्यका श्रवण हुआ. उसी समय समाल्यासंबन्ध प्रतिपति हो ही जाती है अत एव गवयदर्शनके बाद उसे माननेपर गृहीतग्राहि होनेसे सूतिकी तरह उपमान सामान हो जायगा-तस्वसं० का० १५६४-६५ भागे जाकर उन्होंने यह भी कह दिया है कि यदि उपमान को किसी भी तरह प्रमाण मानना ही हो तब उसे सता नहीं किन्तु अनुमानान्तर्गकर लेना चाहिए। 1. "गोचरपेऽपि भवत्येवाउमैव वा। निस्पवित्वमलप्रीव ५५ो पा सम्मोऽसौरिगबहुतिगोचरा सोचमहणावतो पुरिलोगोपचा140"वसं०। म्या. २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy