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टिप्पणानि ।
[पृ० ६२. पं० ११योगः सादृश्यम् । यथा गोजातियोगिभिः कर्णाद्यवयव सामान्यैर्गधयजातेर्योगो गवयस्य गोसादृश्यम् । गवयसंयोगिभिश्च गोर्योगः तत्सादृश्यम् ।” शास्त्रदी० पृ० ७५ ।
सामान्यका लक्षण तो यह है कि जो अनुवृत्ति प्रत्ययमें निमित्त हो वह सामान्य है' । अर्थात् गोस्वसामान्यके कारण सभी गायोंमें 'अयं गौः' 'अयं गौः' ऐसा प्रत्यय होता है । मीमांसकों का कहना है कि सादृश्य सामान्यरूप नहीं किन्तु उससे भिन्न पदार्थ है क्योंकि सादृश्यके कारण अनुवृत्ति प्रत्यय नहीं होता किन्तु सादृश्य प्रत्यय होता है'। सादृश्य सामान्यमें भी उपलब्ध होता है अत एव वह सामान्यसे भिन्न होना चाहिए' ।
किन्तु नैयायिकों ने उसे द्रव्यादि सात पदार्थसे अतिरिक्त नहीं माना और उसका लक्षण इस प्रकार किया
"तद्भित्वे सति तद्वतभूयोधर्मवस्वम्" मुक्ता० का० २ ।
इसका मतलब यह है कि जब हम मुखको चन्द्रकी उपमा देते हैं अर्थात् मुखको चन्द्र सदृश कहते हैं तब इसका अर्थ यह है कि चन्द्रसे भिन्न होते हुए भी चन्द्रगत आह्लादकत्वादि धर्म मुखमें हैं। यही मुखगत चन्द्रसादृश्य है ।
नैयायिकों ने मीमांसकों की तरह सादृश्यको पृथक् पदार्थ माना है
"नव्यास्तु सादृश्यमतिरिक्तमेव । न चातिरिक्तत्वे पदार्थविभागव्याघातः इति वाच्यम् । तस्य साक्षात् परंपरया वा तत्वज्ञानोपयोगिपदार्थमात्रनिरूपणपरत्वात्" दिनकरी का० २ |
बौद्धों ने तो कह दिया कि जब सामान्य ही सिद्ध नहीं तब 'भूयोवयवसामान्ययोग' रूप सादृश्य कैसे सिद्ध हो सकता है- तत्त्वसं० का० १५४४ ।
पृ० ६२. पं० ११. ' गवयालम्भने' उपमानके प्रयोजनमें कुमारिल ने बताया है कि प्रतिनिधि चुनाव में सादृश्यके ज्ञानकी अपेक्षा है। और सादृश्य ज्ञान उपमानसे होता है । उन्होंने श्रीहिके अभाव में नीवारको प्रतिनिधि मान कर यज्ञ करलेना चाहिए ऐसी बात मीमांसासूत्र (६.३.१३ - १७ ) के आधारसे कही है - श्लोकवा० उप० ५३ ।
प्रस्तुत में शान्त्या चार्य ने गवयको गोके प्रतिनिधिरूपसे बताया है । भी मां सा दर्शनमें गोका 1 वयसे सादृश्य माना गया है किन्तु गवयको गोका प्रतिनिधि बनाया जाय ऐसी विधि देखनेमें नहीं आती फिर भी ऐसी कल्पना बौद्धों ने और जैनों ने मीमांसक कों की हिंसाप्रिय प्रकृतिको देखकर की हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।
पृ० ६२. पं० १५. ' प्रमाणेयचा' तुलना - " एतावता च लेशेन प्रमाणत्वव्यवस्थितौ । नेयता स्यात् प्रमाणानामन्यथापि प्रमाणतः ॥” तत्त्वसं० का० १५५६ ॥
पृ० ६२. पं० १६ 'नविषयवत्' तुलना - " प्रमेयवस्त्वभावेन नाभिप्रेताऽस्य मानता ॥" तत्त्वसं० का० १५४३ ।
१. प्रशस्त० पृ० ६७७ । २. "अनुवृत्तिप्रत्यय निमित्ताभावाच न सामान्यम्” प्रकरणपं० पृ० ११० । ३. "सामान्येपि सरवात् यथा गोत्वं नित्यं तथा अश्वत्वमपि नित्यमिति सारस्यप्रतीते: " मुक्ता० का० २ । ४. प्रमाणवा० अलं० पृ० ५७६ ।
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