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________________ २३८ टिप्पणानि । [पृ० ७४. पं०५संक्षिप्त और खरूपबोधक लक्षण प्रत्यक्षलक्षणमें प्रविष्ट हुआ, एक ओर तो उन्होंने प्रत्यक्षका कल्पनापोट, निर्विकल्प इत्यादि निषेधात्मक लक्षण बताया और दूसरी ओर प्रत्यक्षको विशद प्रतिभास (प्रमाणवा० २.१३०), साक्षात्कारित्वव्यापारयुक्त (न्यायवि० पृ०२०) स्फुटाभ (वही पृ० २१), स्पष्ट (प्रमाणवा० २.२८१,२८४ रुटामता (वही २.८), स्पष्ट प्रतिभास (वही २.१४८,५०४ ) इत्यादि विधेयात्मक रूपसे प्रतिपादित किया । यही कारण है बादके दार्शनिकोंने मी प्रत्यक्षके लक्षणमें इन विशेषणोंको अपनाया । जैन दार्शनिक अकलंकने और विद्यानन्द ने तथा तदनुगामी अन्य' आचाोंने प्रत्यक्षको स्पष्ट, विशद या साक्षात्कारि' कहा । योग विद्वान् भासाने प्रत्यक्षको अपरोक्षानुभव' का साधन कहा और न्याय सिद्धान्तमंजरी कारने 'साक्षात्काररूपप्रमाकारणम्' (पृ.२) कहा । मी मांसक शालिक नाथ ने साक्षाप्रतीतिको प्रत्यक्ष कहा। नव्यन्यायके पिता गंगेश ने तो प्राचीन लक्षणका खण्डन करके "प्रत्यक्षस्य साक्षात्कारित्वं लक्षणम् ।" (तत्वचिं० पृ० ५४३) ऐसा प्रत्यक्षका जो लक्षण किया वह बौद्ध असरसे ही किया है ऐसा समझना चाहिए। यपि इन समी दार्शनिकोंने प्रत्यक्षको स्पष्ट, विशद या साक्षात्कारात्मक बताया.फिर मी बौदोंने निर्विकल्पकत्व और स्पष्टत्व का जो समीकरण किया था उसे किसीने मान्य नहीं रखा । यही कारण है कि शान्स्या चार्य वैशबके लक्षणरूपसे निर्विकल्पकत्वका खण्डन करते है। बौद्रों की मान्यता है कि जो स्पष्ट होगा वह निर्विकल्पक ही होगा और जो निर्विकल्पक होगा वह स्पष्ट ही होगा । कल्पनाज्ञान स्पष्ट हो नहीं सकता वह अस्पष्ट ही है । दूसरे दार्शनिकोंने प्रलक्षको विशद तो मान लिया किन्तु उसकी ऐकान्तिक निर्विकल्पकता स्वीकृत नकी अत एव बौद्धों के उक सिद्धान्तका खण्डन करके ही प्रत्यक्षको स्पष्ट या विशद सिद्ध किया । दूसरे आचार्योंने स्पष्टता और विशदतामें कोई भेद नहीं किया है अत एवं प्रत्यक्षको कहीं स्पष्ट कहा और कहीं विशद । पूर्वोक्त बौद्ध उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि कहीं तो धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्षको स्पष्ट कहा और कहीं विशद । इसी लिये हम बादके दार्शनिकोंमें मी देखते हैं कि किसीने प्रत्यक्षको स्पष्ट कहा और किसीने विशद । किन्त शाम्याचार्य ने विशद और स्पष्टके अर्थ में मी मेद बताया है। उनका कहना है कि प्रत्यक्षका लक्षण विशदता अर्थात् साक्षात्कारित्व-दन्त्वेनावभास हो सकता है किन्तु स्पष्टता नहीं। क्योंकि दूरदेशसित पदार्थका दर्शन अस्पष्ट होते हुए मी प्रत्यक्ष कहा जाता है और बालककी अपेक्षा परका दर्शन अस्पष्ट होते हुए भी प्रत्यक्षान्तर्गत है। अत एव स्पष्टता प्रत्यक्षका लक्षण नहीं। १. "स्पट साकारमंजसा" न्यायविका०३| "प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं" लघी०३।२. "विशवज्ञानास्मकं प्रत्यक्षम्" प्रमाणप० पृ०६७। तरवार्थश्लो०पृ०१८४।३.परीक्षामुख २.३ प्रमाणन २.२ । प्रमाणमी..... प्रमालक्ष्म का०२०। .. न्याया०टी०१०२८ ५.न्यायसारपू०२। ..प्रकरणपं० पृ०५१।.."विकल्पो हि विकस्पिायगोचरत्वावल्पप्रतिमा एव।" प्रमाणवा० मनो०२.५०३। “विधूतकलपनाजा स्पष्टमेवावभासते।" "न विकसानुविना स्पष्टार्थप्रतिभासिता।" प्रमाणवा०२.२८१,२८३। ८. "विशदं स्पष्टं पविज्ञान व प्रलक्ष" प्रमेयक पू०२१६ | "वैशचं स्पष्टत्वापरपर्मान स्वीकार्यम् । स्यावादर०पू०३१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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