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पृ०७४. पं० ५.]
टिप्पणानि ।
यही बात वियानन्द ने भी कही है -
"अध्यक्षत्वं नहि व्याप्तं स्पष्टत्वेन विशेषतः ।
दविष्ठपादपाध्यक्षज्ञानस्यास्पष्टतेक्षणात् ॥” तत्त्वार्थश्लो० पृ० २२८ ।
उनका कहना है कि कभी कभी प्रत्यक्षज्ञान भी अस्पष्ट होता है क्योंकि स्पष्ट प्रत्यक्षमें जैसा क्षयोपशम होता है वैसा अस्पष्ट अध्यक्षमें नहीं होता ।
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"क्षयोपशममेदस्य तादृशोऽसंभवादिह ।
अस्पष्टात्मक सामान्यविषयत्वं व्यवस्थितम् ॥” तवार्थश्लो० पृ० २२८ ।
तब प्रत्यक्षको स्पष्ट कहा जाता है उसका क्या मतलब है ? यदि अस्पष्ट भी प्रत्यक्ष हो तो प्रत्यक्ष लक्षणमें अकलंक ने "स्पष्टम् " ऐसा विशेषण दिया है उसकी संगति कैसे करना ? इस प्रश्नके उत्तर में विद्यानन्द ने प्रत्यक्षकी लक्षणभूत स्पष्टताका जो समर्थन किया है उसे यदि शान्त्या चार्य स्वीकृत करते तो असंगतिको स्थान रहता नहीं । तथा विशद और स्पष्टमें मेद करने की आवश्यकता रहती नहीं । विद्यानन्दका कहना है कि पारमार्थिक प्रत्यक्षका लक्षण जब स्पष्टत्व कहा जाता है तब मतिज्ञानादि जो इन्द्रियानिन्द्रियसापेक्ष हैं वे आत्ममात्रसापेक्ष पारमार्थिक प्रत्यक्ष की अपेक्षा अत्यन्त अस्पष्ट होनेसे प्रत्यक्ष कहनेके योग्य ही नहीं अत एव परोक्ष ज्ञान हैं । किन्तु जब व्यवहार नयका आश्रयण किया जाता है तब मत्यादि ऐन्द्रियक ज्ञान प्रादेशिक स्पष्ट होनेसे प्रत्यक्षान्तर्गत हो जाते हैं। दूरदेशसे जो वृक्षादिका दर्शन अस्पष्ट कहा जाता है वह मात्र अस्पष्ट नहीं किन्तु उसमें संस्थान विषयक स्पष्टता भी है और उसी स्पष्टताकी मुख्यतासे उस ज्ञानमें प्रत्यक्षका व्यवहार अनुचित नहीं ।
शान्ख्या चार्य का अभिप्राय यह जान पडता है कि इस व्यवहार और निश्चयके झगडेसे 'अलिप्त रह करके यदि प्रत्यक्षका निर्दोष लक्षण करना हो तो स्पष्टताके स्थान में वैशद्य शब्द रख करके उसका अर्थ साक्षात्कार करना चाहिए । जिससे अस्पष्ट दूरदेशादि दर्शन भी प्रत्यक्षान्तर्गत हो सके। और अन्य दार्शनिकों को भी उसमें आपत्ति न हो । एक और बात भी है कि सन्मतिटीकाकार अभय देव ने अस्पष्टत्व की जो व्याख्या की है उसे मद्दे नजर रखकर यदि शान्त्या चार्य प्रत्यक्षका लक्षण बनाते तब वे स्पष्टत्वको प्रत्यक्षका लक्षण नहीं कह सकते थे । क्योंकि अभयदेवने' उस अस्पष्ट ज्ञान को भी प्रत्यक्षान्तर्गत गिना है । 1 अतएव शान्त्या चार्य ने विशद और स्पष्टमें भेद करके विशदशब्दसे ही प्रत्यक्षका बोध कराना चाहा उसमें उनकी विवेकदृष्टि स्पष्ट हैं ।
अ कलंक देव ने वैशयका अर्थ "अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम्” (लघी० ३)
१. तस्वार्थलो० पृ० १८४ । २. " पादपादिसंस्थानमात्रे दवीयस्यापि स्पष्टत्वावस्थितेः ।"— तस्वार्थलो० पृ० १८५. पं० ३४ । "समन्धकारादौ ध्यामलितवृक्षादिवेदनमपि अध्यक्षप्रमाणस्वरूपमेव संस्थानमात्रे वैशद्या विसंवादित्वसम्भवात् ।" प्रमेयक० पृ० २२० । ३. "प्रत्यक्षबुद्धावपि अस्पष्टस्यकक्षणप्रति भासस्य प्रतिपादितत्वात् । यत्र हि विशेषोपसर्जनसामान्यप्रतिभासो शाने तद् reve व्यवह्रियते यत्र च सामान्योपसर्जनविशेषप्रतिभासः सामग्रीविशेषाद तत् स्पष्टमुच्यते ।" सम्मति० टी० पृ० २६० । ४. किन्तु अभयदेव स्वयं स्पष्ट और विशदमें कोई भेद नहीं मानते । उन्होंने स्पष्टके पर्यायरूपसे विशद शब्दका प्रयोग किया है- सम्मति० टी० पृ० ५५२ ।
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