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________________ टिप्पणानि । [पृ० ७४. पं० ६किया है । इसी अर्थका अनुसरण दे व सू रि ने ( प्रमाणन० २.३ ) किया है । न्याय कु मुदचन्द्र में प्रभा चन्द्र ने उसका यह अर्थ किया है "अनुमानादिभ्योऽतिरेकेण आधिक्येन वर्णसंस्थानादिविशेषरूपतया अर्थग्रहणलक्षणेन अधारतरविशेषान्वितार्थावधारणरूपेण वा यद विशेषाणां नियतदेशकालसंस्थानापर्थाकाराणां प्रतिमासनम् ।" न्यायकु० पृ०७४। माणिक्य न न्दि ने "प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन प्रतिभासनम्" ( परीक्षामुख २.४ ) ऐसा बैशनका लक्षण किया है और प्रमेय कम ल मा त ण्ड में प्रभा चन्द्र ने उस लक्षणका समर्थन भी किया है। किन्तु वादी दे व सूरि ने इस लक्षणका खण्डन करके पूर्वोक्त शकलंक के मतको ही मान्य रखा है। ___ गंगेश ने भी माणिक्य नंदी के समान ही प्रत्यक्षका लक्षण स्थिर किया है और नवीन नैया यि कों ने उसको स्वीकार किया है। बाचार्य हेमचन्द्र ने गंगेश और प्राचीन जैना चायों के लक्षणोंको विकल्पसे स्वीकार किया है-"प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम् ।" प्रमाणमी० १.१.१४ । यशोविजय जी ने अकलंक का ही अनुसरण किया है। पृ०७४. पं० ६. 'अथ तच्छुतम्' दूरदेशस्थपादपादिका अस्पष्टदर्शन श्रुतज्ञान मानना चाहिए ऐसा किसी का मत यहाँ उल्लिखित है । आचार्य विद्या नन्द ने भी इस मतको पूर्वपक्षरूपसे रख कर उस का खण्डन किया है। और स्पष्ट रूपसे उक्तज्ञानको अक्षज प्रत्यक्ष सिद्ध किया है तथा उसकी. श्रुतज्ञानता निषिद्ध की है "विष्ठपावपादिकानम् अक्षजम्, अक्षान्वयव्य तिरेकानुविधायित्वात् सविरुष्पाद प्रादिविज्ञानवद । भुतहानं वा न भवति साक्षात् परंपरया चा मतिपूर्वकस्वाभावात् वदेवेति ।" तत्त्वार्थश्लो० पृ० २२८ । विपा नन्द ने उक्तपूर्वपक्षका आधार "श्रुतमस्पष्टतर्कणम्" इस श्रुतलक्षणको बताया है-यह वाक्य किस जैनाचार्यका है इसका पता नहीं । किन्तु आचार्य विधा नन्द ने खयं अतकी व्याख्याके प्रसंगमें इसका उपयोग किया है और इस वाक्यांशके आगे “मतिपूर्व" ऐसा विशेषण जोड कर श्रुतका निर्दोष लक्षण किया है जिससे मात्र अस्पष्टताके कारण किसी हानको श्रुत ज्ञान कहनेकी शक्यता नहीं रह जाती। किन्तु शान्त्या चार्य ने उक्त पूर्वपक्षका आधार 'श्रुतमस्पष्टतर्कणम्' को न बनाकर अकलं को.पज्ञ श्रुतके तीन भेद से प्रत्यक्षपूर्वक श्रुतको बनाया है ऐसा उनकी चर्चासे अकलंक ने प्रमाण संग्रह की द्वितीय कारिका की खोपज्ञ व्याख्यामें "श्रुतम् परीक्षामुख तथा उसकी टीकानों में सर्वत्र "प्रतीत्यन्तराध्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिमासन बसचम्" ऐसा सूत्र पाठ छपा हुआ है किन्तु मार्तण्डकार प्रमाचन्द्रको उस सूत्रका "मव्यवधानेन प्रतिमास कायम्" ऐसा पाठ मान्य है-ऐसा मेरा मन्तव्य है। २. स्याद्वादर० पृ० ३१७। "शानाकरणकं ज्ञानम् इति तु वयम्" तस्वचिं० प्र० पृ० ५५२ । मुक्का० का० ५१ । जैनत०पू०२। ५. "मतिपूर्व ततो शेनं श्रुतमस्पष्टतर्कणम्" तत्त्वार्थश्लो० पृ०२३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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