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________________ पृ० ७४. पं० १७] टिप्पणानि । २५१ अविप्लवं प्रत्यक्षानुमानागमनिमित्तम् ।" ऐसा कहा है उसीके आधारसे शास्त्राचार्य ने "अथ त्रिधा श्रुतम्-प्रत्यक्षपूर्वकम् , लैङ्गिकम्, शाब्दं चेति" इत्यादि कयन किया है क्योंकि अंतमें जाकर वे "त्रिधा भुतमविप्लवम्" ऐसी प्रमाण संग्रह की कारिकाका निरास करते हैं। इससे स्पष्ट है कि उक्त पूर्वपक्ष अकलंक का है। प्रत्यक्षके विषयमें अन्य ज्ञातव्य बातोंके लिये देखो, प्रमाणमीमांसा-भाषाटिप्पण पृ० १३२॥ पृ० ७४. पं० १७. 'त्रिधा' प्रत्यक्षका विभाग दार्शनिकोंने अनेक दृष्टिसे किया है। प्रशस्त पाद ने इन्द्रियज और योगज ऐसे प्रत्यक्षके दो विभाग प्रत्यक्षके कारणके भेदसे या अधिपतिके भेदसे किये हैं। इन्द्रियाँ छः हैं -घ्राण, रसन, चक्षु, त्वक, श्रोत्र और मन अत एव इन्द्रियज प्रत्यक्षके छः भेद हैं । और योगिके दो भेद हैं-युक्त और वियुक्त मत एव योगज प्रत्यक्ष मी दो तरहका है। न्या य सूत्र का आधार लेकरके टीकाकारोंने प्रत्यक्षके निर्विकल्प और सविकल्प ऐसे दो भेद भी किये हैं । ऐसे विभागके समय नै या यि कों की दृष्टि प्रत्यक्षके खरूपमेद की ओर विशेषतः है । न्या य सूत्र के भाष्य और वार्तिक में समस्त प्रत्यक्षसूत्र( १.१.१)को प्रमक्ष सामान्यका लक्षणपरक कहा गया है । किन्तु वा च स्पति ने उस सूत्र को प्रस्मक्षके दो भेद-निर्विकल्प और सविकल्पके जुदे जुदे दो लक्षणों का संग्राहक माना है। उनका कहना है कि सूत्रस्थ 'अव्यपदेश्य' पदसे निर्विकल्पजातीय प्रत्यक्षका और व्यवसायात्मक' पदसे सविकल्पजातीय प्रत्यक्षका ग्रहण होता है। नव्य नै या यि कों ने इन्द्रिय-ज्यापारकी विशेषताकी दृष्टिसे प्रत्यक्षका विभाजन किया है। उनके मतानुसार प्रत्यक्षके मुख्य दो भेद हैं लौकिक और अलौकिक । संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्यमाव ये छः इन्द्रियों के लौकिक व्यापार हैं । अत एव इन छः प्रकारके 'सन्निकर्षरूप लौकिक व्यापारसे जन्य प्रत्यक्षको लौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है । इस लौकिक प्रत्यक्षके मुख्य दो भेद हैं । बाहोन्द्रियण्यापारजन्य और अन्तरिन्द्रियव्यापारजन्य । बाह्य चक्षुरादि पूर्वोक्त पांच इन्द्रियके व्यापारजन्य वाय प्रत्यक्ष पांच प्रकारका है । और अन्तरिन्द्रिय एक मन है अत एव मनोजन्य मानस प्राक्ष एक प्रकारका है। अलौकिक व्यापारके तीन भेद हैं-सामान्यलक्षण, ज्ञानलक्षण और योगजधर्म । अत एवं अलौकिक प्रत्यक्षका भी उक्त तीन अलौकिक व्यापारके मेदसे त्रैविष्य है। १. प्रशस्त० पृ०५५२। २. "तसादेकद्वित्रिचतुष्पदपहुंदासात् पापपरिमादेन स्विकील सम लक्षणमित्युच्यते" न्यायवा० पृ०४०। ३. “इह इवी प्रत्वबजाति:--अविकसिकाअनिक पिकाचेति । तत्र उभयी इन्द्रियार्थससिकोत्पज्ञानमयभिचारीति सजेन संगडीमानिसको पाता, वन विप्रतिपत्तेः । तत्राविक्षिपकायाः पदमव्यपदेश्यामिति । सविकसिकाकायला मकमिति ।" तात्पर्य० प्र० १२५। १.देखो प्रस्तुत टिप्पण पू० १४१ । १.कारिका का०५२ से। न्या.३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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