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________________ पू० १०५. पं० १२] टिप्पणानि । २७१ पृ० ४४ । तात्पर्य० पृ० १६६ । न्यायमं० वि० पृ० १२१ | श्लोकवा० अनु० १२ कंदली० पृ० २०९ | पृ० १०४. पं० ९. 'अपरे' व्याप्तिका ग्रहण अनुमानसे होता है - यह किस दार्शनिकक मन्तव्य है कहना कठिन है । दार्शनिकोंने इस पक्षका खण्डन तो किया है किन्तु वह मत किसका है इस विषय में कुछ निर्देश नहीं किया है। देखो, लघी० स्व ० का ० ११ । न्यायकु० पृ० ४३३ । प्रकरणपं० पृ० ६९ । न्याया० टी० पृ० ५१ । इत्यादि । पृ० १०४. पं० ९ 'अन्ये' व्याप्तिग्राहक तर्क स्वतन्त्र दार्शनिकोंका है । न्यायावतारके टीकाकार सिद्धर्षिको मी न्याया० टी० पू० ५१ । प्रमाण है यह मत अन्य जैन तर्कप्रामाण्यका खातच्य मान्य पृ० १०४. पं० १७. 'यो हि' तुलना - "यो हि सकलपदार्थव्यापिनी क्षणिकताम् इच्छति तं प्रति कस्यचित् सपक्ष स्यैवाभावात् ।" हेतु ० टी० पृ० १५. पं० २० । प्रमाणमी० पृ० ४४६४७। ४० १०४. पं० २०. 'प्राणादिः' विवेचनाके लिये देखो प्रमाणमी० भाषाटिप्पण पृ० 4 | Buddhist Logic Vol, I p. 338., Vol II P. 208 - पृ० १०५ पं० १२ 'संबन्धमन्तरेण' बौद्धों ने अविनाभाव के नियामक तादात्म्य और तदुत्पचि हम दो सम्बधोंकी कल्पना की है - "स च प्रतिबन्धः साध्येऽर्थे लिङ्गस्य वस्तुतः तादात्म्यात् साध्यार्थादुत्पत्तेश्च व्यतत्स्वभावस्यातदुत्पत्तेश्च तत्राप्रतिबद्धस्वभावत्वात् । " न्यायवि० पू० ४१ । प्रमाणवा० ३.३० । हेतु० टी० पृ० ८ | शान्त्या चार्य ने प्रस्तुत में उसी कल्पना को लक्ष्य में रख कर पूर्वपक्ष किया है। अन्य दार्शनिकोंने अविनाभाव के नियामक रूपसे किसी भी सम्बन्ध की अनिवार्यता निश्चित नहीं की है। यही कारण है कि अन्य दार्शनिकोंने स्वभाव और कार्यसे अतिरिक्त हेतुओंकी मी शक्यता मानी है। नैयायिक जयन्त के मतसे हेतु और साध्यमें व्याप्ति - अविनाभाव - नित्य साहचर्यका होना पर्यास है । व्याप्तिको सूक्ष्म विचार करके मी तादात्म्य और तदुत्पत्ति में सीमित करने की अपेक्षा स्थूल दृष्टिसे इतना कहना ही पर्याप्त है कि साध्य -साधन में नित्य साहचर्यरूप सम्बन्ध । क्योंकि सीमित करने पर कार्य और खभाव ही हेतु होंगे किन्तु विचार करने पर स्पष्ट होता है कि कार्य और स्वभाव से अतिरिक्त भी कई प्रकारके हेतुओंकी सिद्धि होती हैन्यायमं० वि० पृ० ११३-११७ । वाचस्पति का कहना है कि साध्य और साधन में कई प्रकार के सम्बन्धकी कल्पना की जा सकती है। अत एव साध्य-साधनके सम्बन्ध की संख्याका नियम करना ठीक नहीं । सम्बन्ध कोई भी हो किन्तु जो खभावसे ही किसीसे नियत होगा वही गमक होगा । मतलब यही है कि एक खाभाविक सम्बन्ध अर्थात् अविनाभाव - अन्यथानुपपत्ति ही पर्याप्त है। अन्यथानुपपत्ति क्यों है इसका नियम किया नहीं जा सकता । कहीं कार्यकारणभावप्रयुक्त, कहीं पूर्वापरभावप्रयुक्त, कहीं सहचारप्रयुक्त इत्यादि अनेकरूप अविनाभाव हो सकता है इन कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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