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________________ शानचर्चाका प्रमाणचर्चासे स्वातथ्य । अंकित नकशेको देखनेसे स्पष्ट हो जाता है कि सर्वप्रथम इसमें ज्ञानोंको पांच भेदमें विभक्त करके संक्षेपसे उन्हींको प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदोंमें विभक्त किया गया है। स्थानांगसे विशेषता यह है कि इसमें इन्द्रियजन्य पांच मतिज्ञानोंका स्थान प्रत्यक्ष और परोक्ष उभयमें है। क्योंकि जैनेतर सभी दर्शनोंने इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको परोक्ष नहीं किन्तु प्रत्यक्ष माना है, उनको प्रत्यक्षमें स्थान देकर उस लौकिक मतका समन्वय करना भी नन्दीकारको अभिप्रेत था। आचार्य जिनभद्रने इस समन्वय को लक्ष्यमें रखकर ही स्पष्टीकरण किया है कि वस्तुतः इन्द्रियज प्रत्यक्षको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिए । अर्थात् लोकव्यवहारके अनुरोधसे ही इन्द्रियज मतिको प्रत्यक्ष कहा गया है । वस्तुतः वह परोक्ष ही है । क्योंकि प्रत्यक्षकोटिमें परमार्थतः आत्ममात्र सापेक्ष ऐसे अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ही हैं। अतः इस भूमिकामें ज्ञानोंका प्रत्यक्ष-परोक्षत्व व्यवहार इस प्रकार स्थिर हुवा १ अवधि, मनःपर्यय और केवल पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। २ श्रुत परोक्ष ही है। ३ इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टिसे परोक्ष है और व्यावहारिक दृष्टिंसे प्रत्यक्ष है । ४ ममोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है । आचार्य अकलंकने तथा तदनुसारी अन्य जैनाचार्योंने प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ऐसे जो दो भेद किये हैं सो उनकी नई सूझ नही है। किन्तु उसका मूल नन्दीसूत्र और उसके जिनभद्रकृत स्पष्टीकरणमें है। ६३. ज्ञानचर्चाका प्रमाणचर्चासे खाताय । पंचज्ञान चर्चा के क्रमिक विकास की उक्त तीनों आगमिक भूमिकाकी एक खास विशेषता यह रही है कि इनमें ज्ञानचर्चा के साथ इतर दर्शनोंमें प्रसिद्ध प्रमाणचर्चाका कोई सम्बन्ध या समन्वय स्थापित नहीं किया गया है । इन ज्ञानोंमें ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके भेदके द्वारा जैनागमिकोंने वही प्रयोजन सिद्ध किया है जो दूसरोंने प्रमाण और अप्रमाणके विभागके द्वारा सिद्ध किया है । अर्थात् आगमिकोंने प्रमाण या अप्रमाण ऐसे विशेषण विना दिये ही प्रथमके तीनोंमें अज्ञान-विपर्यय - मिथ्यात्वकी तथा सम्यक्त्वकी संभावना मानी है और अंतिम दोमें एकान्त सम्यक्त्व ही बतलाया है । इस प्रकार ज्ञानोंको प्रमाण या अप्रमाण न कह करके मी उन विशेषणोंका प्रयोजन तो दूसरी तरहसे निष्पन्न कर ही दिया है। जैम आगमिक आचार्य प्रमाणाप्रमाणचर्चा, जो दूसरे दार्शनिकोंमें चलती थी, उससे सर्वथा अनभिज्ञ तो थे ही नहीं किन्तु वे उस चर्चाको अपनी मौलिक और खतत्र ऐसी ज्ञानचर्चासे पृथक् ही रखते थे। जब आगमोंमें ज्ञानका वर्णन आता है तब प्रमाणों या अप्रमाणों से उन ज्ञानोंका क्या संबन्ध है उसे बतानेका प्रयत्न नहीं किया है. और जब प्रमाणोंकी चर्चा आती है तब, किसी प्रमाणको ज्ञान कहते हुए भी आगम प्रसिद्ध पांच ज्ञानों का समावेश और सम नहीं बताया है इससे फलित यही होता है कि आगमिकोंने "एगम्तेण परोक्खं किंगियमोहाइयं च पचक्खं । इंदियमणोभवं जं तं संववहारपञ्चक्खं ॥" विशेषा०९५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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