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________________ ५०७६.५०६ टिप्पणानि । ९४५ प्राचीन जैन आगमोंमें इन्द्रियजन्य मतिज्ञानको प्रत्यक्ष भी कहा है और परोक्ष मी कहा है। इस विरोधका समन्वय करके आचार्य जिन भद्र ने कह दिया कि वस्तुतः प्रत्यक्षके दो मेद हैं। एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और दूसरा पारमार्थिक प्रत्यक्ष । जैनदार्शनिकोंने प्रत्यक्षशब्दगत 'अक्ष'का अर्थ आत्मा किया है। अत एव जो आत्ममात्रसापेक्ष हो वही पारमार्थिक प्रत्यक्ष है और क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको लोकमें - अन्य दर्शनोंमें प्रत्यक्ष कहा जाता है अत एव वह सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष है । यही व्यवस्था प्रायः सभी जैन दार्शनिकोंने खीकृत की है। आचार्य अकलं क ने भी अन्यत्र यही व्यवस्था की है किन्तु उन्होंने अपने प्रमाण संम ह में - प्रत्यक्षके तीन भेद किये हैं' - इन्द्रियप्रत्यक्ष, अनिन्द्रियप्रत्यक्ष और अतीन्द्रियप्रत्यक्षप्रमाणसं० पृ० ९७ । आचार्य विद्यानन्द ने भी प्रमाण परीक्षा में प्रत्यक्षके उपर्युक्त तीन भेद बताये हैं-प्रमाणप० पृ० ६८। उन्हीका अनुकरण प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने किया है और प्रत्यक्षके उक्त तीन भेद गिनाये हैं। प्रत्यक्षके अवान्तर भेदोपमेदोंके लिये देखो-प्रमाणप० पृ० १८ स्याद्वादर० २.४-२३ । पृ० ७४. पं० २१. 'न मानसादि' यह बौद्ध संमत मानसप्रत्यक्ष और स्वसंवेदन प्रत्यक्षके निषेधको लक्ष्य करके कहा गया है । पृ० ७४. पं० २२. 'इन्द्रियम्' इन्द्रियके विषयमें विस्तृत ऐतिहासिक और दार्शनिक आलोचनाके लिये देखो, प्रमाणमीमांसा - भाषाटिप्पण पृ० ३८। ___ पृ० ७४. पं० २३. 'ननु' सांख्यों का यह पूर्वपक्ष शब्दशः व्यो म व ती टीका से लिया गया है । देखो, व्यो० पृ० १५८ । कंदली पृ० २३।। ___ पृ० ७५. पं० २०. 'वक्ष्यामः' दूसरे ग्रन्थमेंसे शब्दशः पाठ लेने पर अपने ग्रन्थमें असंगत ऐसी बात मी प्रविष्ट हो जाती है इसका यह उदाहरण है। 'वक्ष्यामः' यह पद व्यो मवती का ज्योंका त्यों शान्त्या चार्य ने उद्धृत कर लिया है । प्रस्तुत वार्तिक वृत्ति में तो 'वक्ष्यामः' कह करके जिस अनुमानका निर्देश किया है उसका कोई प्रसंग आगे आता ही नहीं । किन्तु व्यो म शिव को खयं व्यो म व ती में उक्त अनुमान का निर्देश करना है अत एव उसने 'वक्ष्यामः' ऐसे पदका प्रयोग किया । शान्त्या चार्य ने अवधानपूर्वक पाठमें काटछांट की नहीं अत एव व्यो म शिव का वह पद ज्योंका त्यों उद्धृत हो गया, तुलना-"तेजसत्वेऽनुमानमिति वक्ष्यामः ।" व्यो० पृ० १५९।। प्रस्तुत अनुमानके लिये देखो, व्यो० पृ० २५६ । कंदली पृ० ४० । पृ० ७६. पं० ६. 'वक्ष्यमाणम्' यह मी पूर्ववत् व्योम शिव की ही उक्ति है -व्यो. पू० १६० । किन्तु पूर्ववत् प्रस्तुतमें असंगत नहीं क्योंकि शान्त्या चार्य ने आगे जा करके सांसयों का खण्डन किया है । देखो, पृ० ११३। । १. देखो प्रमाणमी० भाषाटिप्पण पृ०२२ २. "प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः।" लघी०३। ३.घीयमयकी स्वविवृतिमें भी अन्यत्र ये ही तीन मेद किये है-लघी०स.६१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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