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________________ प्रस्तावना। ६ चतुर्धातुका कारण है और कार्य भी है। ७ परिणामी है। ८ प्रदेशमैद न होनेपर मी वह वर्णादिको अवकाश देता है। ९ स्कन्धोंका कर्ता और स्कन्धान्तरसे स्कन्धका मेदक है । १० काल और संख्याका प्रविभक्ता-व्यवहारनियामक मी परमाणु है । ११ एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और दो स्पर्शयुक्त है। १२ भिन्न होकर भी स्कन्धका घटक है । १३ आत्मादि है, आत्ममध्य है, आत्मान्त है । १४ इन्द्रियाग्राह्य है। आचार्यने 'धादु चदुक्कस्स कारणं' (पंचा० ८५) अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार धातुओंका मूल कारण परमाणु है ऐसा कह करके यह साफ कर दिया है कि जैसा वैशेषिक या चार्वाक मानते हैं वे धातुएँ मूल तत्व नहीं किन्तु समीका मूल एकलक्षण परमाणु ही है। ६१४ आत्मनिरूपण । (१) निश्चय और व्यवहार - जैन आगोंमें आत्माको शरीरसे मिल भी कहा है और अभिन्न मी । जीवका ज्ञानपरिणाम मी माना है और गत्यादि भी, जीवको कृष्णवर्ण मी कहा है और अवर्ण मी कहा है । जीवको नित्य मी कहा है और अनिल्य भी, जीवको अमूर्त कह कर मी उसके नारकादि अनेक मूर्त भेद बताये हैं । इस प्रकार जीवके शुद्ध और अशुद्ध दोनों रूपोंका वर्णन आगमोंमें विस्तारसे है। कहीं कहीं द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयोंका आश्रय लेकर विरोधका समन्वय भी किया गया है । वाचकने मी जीवके वर्णनमें सकर्मक और अकर्मक जीवका वर्णन मात्र कर दिया है । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दने आत्माके आगमोक्त वर्णनको समझनेकी चावी बता दी है जिसका उपयोग करके आगमके प्रत्येक वर्णनको हम समझ सकते हैं कि आत्माके विषयमें आगममें जो अमुक बात कही गई वह किस दृष्टिसे है । जीवका जो शुद्धरूप आचार्यने बताया है वह आगमकालमें अज्ञात नहीं था। शुद्ध और अशुद्ध स्वरूपके विषयमें आगम कालके आचार्योको कोई भ्रम नहीं था। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दके आत्मनिरूपणकी जो विशेषता है वह यह है कि इन्होंने खसामयिक दार्शनिकोंकी प्रसिद्ध निरूपण शैलीको जैन आत्मनिरूपणमें अपनाया है । दूसरोंके मन्तव्योंको, दूसरोंकी परिभाषाओंको अपने ढंगसे अपनाकर या खण्डन करके जैन मन्तव्यको दार्शनिकरूप देनेका प्रबल प्रयत्न किया है। औपनिषद दर्शन, विज्ञानवाद और शून्यवादमें वस्तुका निरूपण दो दृष्टिओंसे होने लगा था। एक परमार्थ दृष्टि और दूसरी व्यावहारिक दृष्टि । तत्त्वका एक रूप पारमार्थिक और दूसरा सांवृतिक वर्णित है। एक भूतार्थ है तो दूसरा अभूतार्थ । एक अलौकिक है तो दूसरा लौकिक । एक शुद्ध है तो दूसरा अशुद्ध । एक सूक्ष्म है तो दूसरा स्थूल । जैन आगममें जैसा हमने पहले देखा व्यवहार और निश्चय ये दो नय या दृष्टियाँ क्रमशः स्थूल-लौकिक और सूक्ष्म-तत्त्वग्राही मानी जाती रहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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