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मात्मनिरपण। आचार्य कुदकुन्दने आत्मनिरूपण उन्हीं के दृष्टिकोका भावय लेकर किया है। मामाके पारमार्थिक शुद्ध रूपका वर्णन निश्चय नयके आश्रयसे और अशुद्ध या लौकिक-स्थूल भास्माका वर्णन म्यवहार नयके आश्रयसे उन्होंने किया है।
(२) बहिरात्मा-अन्तरात्मा-परमात्मा-माणहक्योपनिषदमें आत्माको चार प्रकार का माना है - अन्तःप्रज्ञ, बहिष्प्रज्ञ, उभयप्रज्ञ और अवाच्य । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दने बहिरात्मा, अन्तरात्मा, और परमात्मा ऐसे तीन प्रकार बतलाये हैं। बाह्य पदार्थोंमें जो आसक्त है, इन्द्रियोंके द्वारा जो अपने शुद्ध खरूपसे प्रष्ट हुआ है तथा जिसे देह और आत्माका भेदज्ञान नहीं जो शरीरको ही आत्मा समझता है ऐसा विपथगामी. मूढात्मा बहिरात्मा है । सांस्योंके प्राकृतिक, वैकृतिक और दाक्षणिक बन्धका समावेश इसी बाह्यास्मामें हो जाता है। .. जिसे मेदज्ञान तो हो गया है पर कर्मवश सशरीर है और जो कमोंके नाशमें प्रयनशील है ऐसा मोक्षमार्गासढ अन्तरात्मा है । शरीर होते हुए भी वह समझता है कि यह मेरा नहीं, मैं तो इससे भिन्न हूं। ध्यानके बलसे कर्म क्षय करके आत्मा अपने शुद्ध खरूपको जब प्राप्त करता है वह परमात्मा है।
(३) परसात्मवर्णनमें समन्वय-परमात्म वर्णनमें आचार्य कुन्दकुन्दने अपनी समन्वय शक्तिका परिचय दिया है । अपने कालमें खयंभूकी प्रतिष्ठाको देखकर खयंभू शब्दका प्रयोग परमात्माके लिये जैनसंमत अर्थमें उन्होंने करदिया है । इतना ही नहीं किन्तु कर्मविमुक्त शुद्ध आत्मा के लिये शिव, परमेष्ठिन् , विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध परमात्मा' जैसे शब्दोंका प्रयोग करके. यह सूचित किया है कि तत्वतः देखा जाय तो परमात्माका रूप एक ही है नाम भले ही नाना हों।
परमात्माके विषयमें आचार्यने जब यह कहा कि वह न कार्य है और नं कारण, तब बौद्धोंके असंस्कृत निर्वाणकी, वेदान्तिओंके ब्रह्मभाव की तथा साक्ष्योंके कूटस्थ पुरुष मुक्त खरूप की कल्पनाका समन्वय उन्होंने किया है।
तत्कालीन नाना विरोधी वादोंका सुन्दर समन्वय उन्होंने परमात्माके खरूप वर्णनके बहाने करदिया है । उससे पता चलता है कि वे केवल पुराने शाश्वत और उच्छेदवादसे ही नहीं बल्कि नवीन विज्ञानाद्वैत और शून्यवादसे मी परिचित थे। उन्होंने परमात्माके विषयमें कहा है
"सस्सदमध उच्छेदं भवमभव्वं च मुण्णमिदरं च । विण्णाणमविण्णाणं ण विशुजदि मसदि समावे॥"
पंचा० ३७ यद्यपि उन्होंने जैनागोंके अनुसार आत्माको कायपरिमाण मी माना है फिर भी उपनिषद् और दार्शनिकोंमें प्रसिद्ध आत्मसर्वगतत्व-विमुत्वका भी अपने ढंगसे समर्थन किया है कि
समय से, ३. से, से। पंचा०३४ा नियम०३८ से । भावप्रा. चन. २.२,८०,१००। २ मोक्षप्रा० ४ से। निबमसार ११९ से। । साल्पत ४४।
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प्रकप्रवचन
"णाणी सिव परमेट्टी सरह विण्ड मुहो बुद्धो।
अप्पो विय परमप्पो कम्मविमुको यहोर फुर।" ६ पंचा०३६।
भावप्रा०१५९
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