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________________ दोनों वादोंको अखीकार करके मध्यममार्गसे प्रतीत्यसमुत्पाद वादका अवलम्बन किया है । जब कि अनेकान्तवादका अवलम्बन करके भगवान् महावीरने दोनों वादोंका समन्वय किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनागमोंमें अस्ति-नास्ति, नित्यानित्य, मेदामेद, एकानेक तथा सान्त-अनन्त इन विरोधी धर्मयुगलोंको अनेकान्तवाद के आश्रय से एक ही वस्तुमें घटाया गया है। भ० महावीरने इन नाना वादोंमें अनेकान्तवादकी जो प्रतिष्ठा की है उसी का आश्रयण करके बादके दार्शनिकोंने तार्किक ढंगसे दर्शनान्तरोंके खण्डनपूर्वक इन्हीं वादोंका समर्थन किया है। दार्शनिक चर्चाके विकासके साथ ही साथ जैसे जैसे प्रश्नों की विविधता बढती गई बैसे वैसे अनेकान्तवादका क्षेत्र मी विस्तृत होता गया। परन्तु अनेकान्तवादके मूल प्रश्नोंमें कोई अंतर नहीं पा । यदि आगमोंमें द्रव्य और पर्यायके तथा जीव और शरीरके भेदाभेदका अनेकान्तवाद है तो दार्शनिक विकासके युगमें सामान्य और विशेष, द्रव्य और गुण, द्रव्य और कर्म, द्रव्य और जाति इत्यादि अनेक विषयोंमें भेदाभेदकी चर्चा और समर्थन हुआ है । यद्यपि मेदामेदका क्षेत्र विकसित और विस्तृत प्रतीत होता है तथापि सब का मूल द्रव्य और पर्यायके भेदामेद में ही है इस बातको भूलना न चाहिए । इसी प्रकार नित्यानित्य, एकानेक, अस्ति-नास्ति, सान्त-अनन्त इन धर्मयुगलोंका मी समन्वय क्षेत्र भी कितना ही विस्तृत व विकसित क्यों न हुआ हो फिर मी उक्त धर्मयुगलोंको लेकर आगमोंमें जो चर्चा हुई है वही मूलाधार है और उसीके ऊपर आगेके सारे अनेकान्तवादका महावृक्ष प्रतिष्ठित है इसे निश्चयपूर्वक खीकार करना चाहिए। ६५. स्याद्वाद और समभंगी। मिज्यवाद और अनेकान्तवादके विषयमें इतमा जान लेनेके बाद ही स्थाबादकी चर्चा उपयुक्त है। अनेकान्तवाद और विभज्यवाद में दो विरोधी धर्मोका खीकार समान मावसे हुआ है इसी आधारपर विभग्यवाद और अनेकान्तबाद पर्यायशब्द मान लिये गये हैं। परन्तु दो विरोधी धोका खीकार किसी न किसी अपेक्षा विशेषसे ही हो सकता है - इस भाव को सूचित करने के लिये वाक्योंमें 'स्यात्' शब्दके प्रयोगकी प्रथा हुई । इसी कारण अनेकान्तवाद स्थावादके मामसे मी प्रसिद्ध हुआ । अब ऐतिहासिक दृष्टि से देखना यह है कि आगमोंमें स्यात् शब्दका प्रयोग हुआ है कि नहीं अर्थात् स्यावादका बीब आगमोंमें है या नहीं। प्रो० उपाध्येके मतसे 'स्याद्वाद' ऐसा शब्द मी आगममें है । उन्होंने सूत्रकृतांगकी एक गाथासे उस शब्दको फलित किया है। अगर चे टीकाकार को उस गाथा में 'स्वाद्वाद' शब्दकी गंध तक नहीं आई है। प्रस्तुत गाथा इस प्रकार है "को छायए मोबियलूसपजामाणं न सेवेज पगासणं च। नपावि पचे परिहास कुजान या सियावाय वियागरेजा।" सूचक० १.१४.१९ । गाथागत 'नयासियावाय' इस अंशका टीकाकारने 'न चाशीर्वाद' ऐसा संस्कृत प्रतिरूप किया है किन्तु प्रो० उपाध्येके मत से वह 'न चास्यावाद' होना चाहिए । उनका कहना है कि अ० हेमचन्द्रके नियमोंके अनुसार 'आशिष्' शब्दका प्राकृतरूप 'आसी' होना चाहिए। खयं हेमचन्द्रने 'आसीया" ऐसा एक दूसरा रूप भी दिया है । आचार्य हेमचन्द्रने स्यावादके मोरिएल कोन्फरंस-नवम अधिवेशनकी प्रोसिडीग्स् प०६७१।२ प्राकृतव्या. ८.२.१७४.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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