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________________ ३४ अस्ति नास्तिका अनेकान्त । के कारण पुगलकी अनित्यता भी सिद्ध होती है और अनियाके होते हुए भी उसकी निजता में कोई बाधा नहीं आती इस बातको भी तीनों कालमें पुद्गलकी सत्ता बताकर भ० महावीरले स्वष्ट किया है - भगवती १४.४.५१० । (११) अस्ति - नास्तिका अनेकान्त । 'सर्व अस्ति' यह एक अन्त है, 'सर्व नास्ति' यह दूसरा अन्त है । भगवान् बुद्धने इन दोनों अन्तोंका अस्वीकार कर के मध्यममार्गका अवलंबन करके प्रतीत्यसमुत्पादका उपदेश दिया है, कि अविद्या होनेसे संस्कार है इत्यादि - "लग्गं अस्थीति तो ब्राह्मण अर्थ एको दुतियो अम्तो। एते ते ब्राह्मण उभो अन्ते अविज्ञापश्चया संखारा......" भन्तो .......सभ्यं मत्थीति को ग्रहण अयं अनुपगम्म मज्येन तथागतो. धम्मं देलेतिसंयुक्त निकाय XII 47 अन्यत्र भगवान् बुद्धने उक्त दोनों अन्तों को लोकायत बताया है - वही XII. 48. इस विषय में प्रथम तो यह बताना आवश्यक है कि भ० महावीरनें 'सर्व अस्ति' का आग्रह नहीं रखा है किन्तु जो 'अस्ति' है उसेही उन्होंने 'अस्ति' कहा है और जो नास्ति है उसेही 'नास्ति' कहा है 'सर्व नास्ति' का सिद्धान्त उनको मान्य नहीं । इस बातका स्पष्टीकरण गौतम गणधरने भगवान् महावीरके उपदेशानुसार अन्य तीर्थिकों के प्रश्नोंके उत्तर देते समय किया है "नो खलु वयं देवाणुपिया ! अस्थिभावं नत्थिति वदामो, नत्थिभावं अस्थिति बदामो । अम्हे णं देवापुपिया ! सम् अस्थिभावं अत्थीति बदामों, सभ्यं स्थिभावं नत्थीति बदामी ।" भगवती ७.१०.३०४. भगवान् महावीरने अस्तित्व और नास्तित्व दोनोंका परिणमन स्वीकार किंवा है। इतना ही नहीं किन्तु अपनी आत्मामें अस्तित्व और नास्तित्व दोनों स्वीकारपूर्वक दोनोंके परिणमनको भी स्वीकार किया है। इससे अस्ति और नास्तिके अनेकान्तवादकी सूचना उन्होंने की है यह स्पष्ट है। "से नूणं भंते! अत्थितं भत्थित्ते परिणमद्द, नत्थितं नत्थिते परिणम ?” "हंता गोयमा !....परिणमद्द " "जपणं भंते ! अस्थित्तं अत्थिते परिणमइ नत्थितं नत्थिते परिणमह तं किं पयोगसा वीससा ?" "गोषमा ! पयोगसा वि तं बीससावि तं ।" 33 भगवती १.३.३३. "जहा ते भंते ! अत्थितं अत्थिते परिणमह तहा ते नत्थिचं नस्थिचे परिणम ? जहा ते नत्थितं नत्थिते परिणम तहा ते अत्थितं अस्थिन्ते परिणमइ ?" "हंता गोयमा ! जहा मे अत्थित्तं ......' जो वस्तु स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल और भाव की अपेक्षासे 'अस्ति' है वही परद्रव्य-क्षेत्र - काल - भावकी अपेक्षासे 'नास्ति' हैं । जिस रूपसे वह 'अस्ति' है उसी रूपसे नास्ति' नहीं किन्तु 'अस्ति' ही है। और जिस रूपसे वह 'नास्ति' है उस रूपसे 'अस्ति' नहीं किन्तु 'नास्ति' ही है। किसी वस्तुको सर्वथा 'अस्ति' माना नहीं जा सकता। क्यों कि ऐसा माननेपर ब्रह्मवाद या सर्वेक्यका सिद्धान्त फलित होता है और शाश्वतवाद भी आ जाता है । इसी प्रकार सभीको सर्वथा 'नास्ति' मानने . पर सर्वशून्यवाद या उच्छेदवाद का प्रसंग प्राप्त होता है । भ० बुद्धने अपनी प्रकृतिके अनुसार इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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