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________________ कुछ प्रास्ताविक विचार। जिसको इन्होंने पसन्द किया और फिर यह कार्य पण्डित श्री दलसुख, भाईको समर्पित करनेका हम दोनोंने निर्णय किया। इसका जो यह सुन्दर फल निर्मित हुभा है, मेरी हिसे इस प्रन्थमाछाके लिये गौरवकी वस्तु है। १४ पण्डित श्री दलसुख भाई, पं० श्री सुखलालजीके एक सुयोग्य उत्तराधिकारी शिष्य है। इन्होंने बाँसे पण्डितजीका सौहार्दपूर्ण सहवास प्राश कर विविध शास्त्रोंका अध्ययन किया है और इनके साथ बेड कर अध्यापन तथा संशोधन-संपादनका काम किया है । दलसुख भाईका दर्शनशास्त्रविषयक अध्ययन-मनन कितना विशद और विस्तृत है यह तो जो मर्मज्ञ जिज्ञासु, प्रस्तुत प्रन्थ में लिखे गये इनके विस्तृत रिप्पों और प्रस्तावनागत विविध प्रकरणोंको मननपूर्वक पढेगा उसीको ठीक ज्ञात हो सकेगा । पण्डित श्री सुखलालजीने अपने 'आदिवाक्य' में इस विषयके अधिकारपूर्ण वचनोंमें जो सारभूत उल्लेख किया है उससे कुछ विशेष कहनेका मैं अपना अधिकार नहीं समझता । मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि जैन साहित्यके ग्रन्थप्रकाशन क्षेत्रमें, पण्डितजीके लिखे गये सर्वप्रथम महत्वपूर्ण टिप्पणों और विशद एवं प्रमाणपूत 'प्रासाविक विवेचनों के साथ प्रकाशित होनेवाले 'प्रमाणमीमांसा' 'शानबिन्दु' आदि अन्योंके भतिरिक्त, श्रीयुत दलसुख भाईका यह प्रन्य-संस्करण ही एक उक्त कोटिके प्रकाशनक्षेत्र में अपना विशिष्ट खान प्राप्त करने योग्य विद्वानोंको प्रतीत होगा। [कृतज्ञता ज्ञापन] १५जैन साहित्यके विशाल भण्डारमें रबरूप पिने जानेवाले प्रन्योंका इस प्रकार उचम स्वरूपमें संक्षा धन, संपादन हो कर प्रकाशन किया जाना जिनके जीवनकी एक विशिष्ट अभिलाषा थी और जिन्होंने अपनी उस अभिलाषाका मूर्तरूपमें फलित होना देखनेकी भन्य इच्छाले, इस प्रन्थमालाका अनन्य प्रदान पूर्वक प्रारंभ कराया था, वे ज्ञानलिप्सु, दानवीर, बाबू श्री बहादुर सिंहजी, यदि इस ग्रन्थका अवलोकन करनेके लिये, माज विद्यमान होते तो मुझे एक प्रकारका अवर्णनीय भानन्द प्राप्त होता । परंतु, दुर्दैवके पुर्विकासने, उस दिव्य आत्माका अनवसरमें ही, हम जैसे उनके सब प्रियजनोंको, दुःखद वियोग करा दिया और हमारे उत्साह, उल्हास और माल्हादको मूछितसा कर दिया। मेरे लिये कुछ आश्वासनकी जो कोई पस्तु है तो वह यह है कि उन स्वर्गवासी भव्यमूर्तिके सुपुत्र बाबू श्री राजेन्द्र सिंहजी तथा श्री नरेन्द्र सिंहजी, अपने पूज्य पिताकी अनन्य कामनाका, उसी उत्साहसे परिपूर्ण करनेकी सदिच्छा रखते हैं और मेरे थके हुए मन और मुके हुए शरीरको, अपनी श्रद्धा और सवृत्तिसे प्रोत्साहित करते रहते हैं। इस प्रकार पं. श्रीसुखलालजी, पं. दलसुखभाई आदि जैसे मेरे अनेक सम्मान्य विद्वान मित्रोंके साहित्यिक सहकारसे और उक सुशील सिंघी बन्धुओंके सौहार्दपूर्ण औदार्यसे, इस ग्रन्थ मालाके संपादनद्वारा मुझे जो कोई सत्फल मिलता हो तो मैं उसके लिये अपनेको उपकृत मानता हुभा, अपने इन सब मुह बन्धुओंके प्रति अपना हार्दिक कृतज्ञभाव प्रकट करता हूं। १६ इस प्रन्थमाछाके, इस प्रकार सुन्दर रूपमें प्रकाशित होनेके कार्यमें, यद्यपि गौणरूपसे तथापि भनन्य साधकतम करणके भावसे, जिस कार्यालयका विशेष सहयोग मुझे मिला है उसके प्रति भी मैं भाज यहां अपना हार्दिक कृतज्ञभाव प्रकट करना चाहता हूं। वह है बंबईका सुविख्यातनामा 'निर्णयसागर' मुद्रणालय । 'निर्णयसागर' प्रेसने संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य के प्रकाशनकी जितनी बडी सेवा की है उतनी सेवा भारत वर्षके अन्य किसी प्रेसने नहीं की। केवल भारतवर्षमें ही नहीं युरोप और अमेरिकामें भी 'निर्णयसागर ने अपने सुन्दर प्रकाशन और मुद्रण कार्यके लिये अच्छी ख्याति प्राप्त की है । जर्मनी, इंग्लैंड और अमेरिकाकेबडेबडे भारतीय साहित्यप्रेमी विद्वान् भी यह चाहते रहे हैं कि उनके संपादित संस्कृत प्राकृत भाषाके अन्य निर्णयसागर' प्रेसके सुन्दर अक्षरोंमें, सुपर रूपसे, छप कर प्रकाशित हों तो उत्तम हो। मैं जो इस प्रन्थमालाको इस रूपमें प्रकट करने में उत्साहित होता रहा हूं, उसका बहुत कुछ श्रेय 'निर्णयसागर' प्रेस को भी है। इस प्रेसके सरलस्वभावी, कार्यनिष्ठ और प्रामाणिकजीवनजीबी, वृद्ध मैनेजर श्रीयुत रामचन्द्र शु शेडगेके तंत्रनीचे आज कोई १० वर्षाले इस ग्रन्थमाकाके ये अपूर्व प्रन्यरत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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