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________________ १९९ कुछ प्रास्ताविक विचार । समझ आ सके पैसा नहीं है। इसी कारणसे, मुझे लगता है कि आज तक किसी जैन विज्ञान, इस पर किसी प्रकारकी टीका-टिप्पणी आदि नहीं लिखी। बहुत समयसे मेरी इच्छा थी कि पण्डितजी इस द्वात्रिंशिका अर्थपर कुछ प्रकाश डालें । इनके जैसा जैन दार्शनिक और साहित्यिक मर्मश विद्वान् जैन समाजमें आज अन्य कोई मेरी नहीं है। जैनेतर समूहमें भी कोई होगा या नहीं इसकी मुझे शंका है। इस द्वात्रिंशिका का भावार्थ सिनेमें पण्डितजीने तब तक जितना वाचन चिन्तन-मनन किया था उस सबका सार दे दिया है। इसका रहस्य तो वे ही ममेश ठीक समझ सकेंगे जिनका इस विषय यथेष्ट प्रवेश है । ११ सिद्धसेन दिवाकरकी इन द्वात्रिंशिका स्वरूप गंभीर और गहन अर्थपूर्ण काव्यकृतियों मैंने अपने पूर्वनिर्दिष्ट उक्त प्रथम लेखमें लिखा था कि "सिद्धसेन सूरिकी पे द्वात्रिंशिकाएं बहुत ही गूड और गभीरार्थक हैं। इनको ऊपर ऊपरसे हमने कई बार पढ कर देखा, परंतु सबका आशय स्पष्ट रीतिखे बहुत कम समझमें आता है। अफसोस तो इस बातका है कि जैन धर्ममें हजारों ही बड़े बड़े प्रत्यकार और टीकाकार हो गए है परंतु किसीने भी इन द्वात्रिंशिकाओंका अर्थ स्फुट करनेके लिये 'शब्दार्थ मात्र प्रकाशिका ' ब्याख्या भी लिखी हो ऐसा ज्ञात नहीं होता। इसका कारण हमारी समझमें नहीं आता । इन द्वात्रिंशिकाओंकी अपूर्वार्थता और कर्ताकी महत्ताका खयाल करते हैं, तब तो यह विचार भाषा कि इनके ऊपर अनेक वार्तिक और बड़े बड़े भाष्य लिखे जाने चाहिये थे। और 'भ्यायावतार' के ऊपर ऐसे वार्तिक और व्याख्यान दिले भी गये हैं। फिर नहीं मालूम, क्यों इन सबके लिये ऐसा नहीं किया गया। शायद अतिगृवार्थक होनेही के कारण, इनका रहस्य प्रकट करनेके लिये किसीकी हिम्मत न चली हो । योग्य और बहुत विद्वानोंके प्रति हमारा निवेदन है कि वे इनका अर्थ स्फुट करनेके किये अवश्यपरिश्रम करें। इन कृतियोंमें बहुत ही अपूर्ण विचार भरे हुए है। हमारे विचारसे जैन साहि भरमें ऐसी अन्य अपूर्व कृतियां नहिं हैं।" १२ तीस वर्ष पहले, अज्ञात भावसे विद्वानोंके प्रति किये गये, मानों मेरे उक्त निवेदनके ही फखरूपमें, पण्डितजी द्वारा इस प्रकार सिद्धसेनीय दो कृतियोंका उत्तम विवेचन हमें प्राह हुआ है, ऐसा संमशंकर मुझे आज विशिष्ट आनन्दका अनुभव होना स्वाभाविक है। मैंने उस बेदवाद द्वात्रिंशकके उसी किंचित् प्रास्ताविक में सिद्धसेनकी अन्यान्य शात्रंशिकाओं पर भी पण्डितजी जैसे बहुत विज्ञानके द्वारा अर्थावबोधक विवेचनादि होनेकी निम्न प्रकारसे पुनः आकांक्षा प्रकट की है। “सिद्धसेन दिवाकरकी और भी ऐसी अनेक द्वात्रिंशिकाएं हैं जो प्रस्तुत अर्थात् वेदवाद द्वात्रिंशिका समान ही बहुत गंभीर और अर्थपूर्ण हैं। सांख्य, योग, वैशेषिक आदि अनेक मठोंके मन्दयोंकी इन द्वात्रिंशिकाओंमें इसी प्रकारकी निगूढ चर्चा करनेमें आई है। इन सब द्वात्रिंशिकाओं पर भी इस तरहका भावार्थोधक विवेचन लिखा जाय तो वह अन्यासियों को बहुत उपयोगी हो कर कितने ही प्रिमोंका नूतन ज्ञान प्राप्त करानेवाला सिद्ध होगा। मैं चाहल हूं कि पण्डितजी के हाथों इन अन्यान्य द्वात्रिंशिकाओं पर भी ऐसा ही समर्पक विवेचन लिखा जा कर वह निकट भविष्य में प्रकाश प्राप्त करें " >< [ न्यायावतारवार्तिक-वृत्तिका प्रस्तुत विशिष्ट संस्करण ] १३ श्री सुख भाई मालवणिया द्वारा संपादित और विवेचित हो कर प्रस्तुत 'न्यायावतारवार्तिक- वृत्ति' नामक जो ग्रन्थरस अब विद्वानोंके सम्मुख उपस्थित है, यह भी उन्हीं सिद्धसेन दिवाकरकी एक कृतिका विवेचनरूप है यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है इस ग्रन्थका, इस तरहके एक अत्यन्त विशिष्ट संस्करणके रूपमें प्रकाशित होनेका प्रधान श्रेय भी पण्डितमवर भी सुखाजीको ही प्राप्त है। सिंधी जैन ग्रन्थमालामें गुम्फित करनेके लिये प्रारंभहीमें, जिन अनेक प्रन्थोंकी नामाबलि मैंने अपने मसमें सोच रखी थी, उनमें इस ग्रन्थका नाम भी सतिविष्ट था । बनारससे जो इसका एक संस्करण बहुत वर्षों पहले निकला था वह बहुत ही भ्रष्ट था, इसलिये इसका अच्छा शुद्ध संस्करण प्रकाशित होना मुझे आवश्यक लगता था । प्रसंगवश मैंने पण्डितजीसे अपना अभिप्राय प्रकट किया १ जैन साहित्य संशोधक, प्रथम खण्ड पहला अंक ४१. " , '२-देखो, 'बेदवादद्वात्रिंशिका' में मेरा लिखा 'किंचित् प्रास्ताविक' पृ. २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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