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________________ कुछ प्रास्ताविक विचार। ६२१ नहीं आया है। जैन साहित्यके इतिहासमें सिवसेनका क्या स्थान है तथा जैन न्यायके प्रतिष्ठित करने में उनका क्या कर्तृत्व है इस विषयमें मैने उक लेखमें जो कुछ विचार प्रदर्शित किये हैं, प्रायः वैसे ही अन्य विद्वानोंको भी अभी तक मान्य है, यह देख कर मुझे जो कुछ अल्प-स्वरूप आत्म-सन्तोषकी अनुभूति होती हो तो वह प्रान्त नहीं है ऐसा समझना अनुचित नहीं होगा। ८तभीसे मेरी यह इच्छा रही कि सिद्धसेन दिवाकरके सभी ग्रन्थ, सुयोग्य विद्वानों द्वारा संशोधित संपादित हो कर प्रकाश में आये तो उससे जैन साहित्यकी विशेष गौरववृद्धि होगी। सद्भाग्यसे, उसके बाद तुरन्त ही मैं, गुजरात विद्यापीठ (अहमदाबाद) की सेवामें संलग्न हो गया, जिसके अन्तर्गत मेरे तत्वाधानमें, महात्माजीने 'गुजरात पुरातत्व मन्दिर'की स्थापना की । उसमें भारतीय प्राचीन साहित्य, इतिहास, दर्शनशास्त्र आदि विषयोंके अध्ययन-अध्यापनके विशिष्ट कार्यके अतिरिक्त उसके द्वारा जैन, बौद्ध, बाह्मण आदि संप्रदायके विविध विषयोंके महत्वके ग्रन्थोंका संशोधन प्रकाशन आदि करनेका कार्यक्रम भी बनाया गया । मेरा साग्रह आमंत्रण प्राप्त कर, मुझसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं वय आदिमें वृद्ध ऐसे मेरे सुहृन्मित्र पण्डितप्रवर श्री सुखलालजी तथा जैनागमोंके मर्मज्ञ अभ्यासी पंडित श्री बेचरदासजी भी उस मन्दिरके, मेरे सहकारी, पूजारी बने । पण्डित सुखलालजीने, इसके पहले ही, आगरामें रहते हुए, सिद्धसेन दिवाकररचित महाप्रन्थ 'सम्मतितर्क'का संपादन करना प्रारंभ किया था । मैंने इस ग्रन्थको पुरातत्व मन्दिरसे प्रकाशित होनेवाली ग्रन्थावलिमें प्रकट करनेका विचार किया जो पण्डितजीको भी बहुत उपयुक्त लगा और फिर तदनुसार, पण्डित श्री बेचरदासजीके सहयोगमें, इन्होंने उसका विशिष्ट संशोधनकार्य प्रारंभ किया । कई वर्षोंके अथक परिश्रम और बहुत दम्यग्ययके पश्चात् , अभयदेवसूरिकी 'वादमहार्णव' नामक महती ग्यास्याके साथ, बडे बडे ५ भागोंमें, दिवाकरका यह 'सन्मति प्रकरण' नामक जैन दर्शनका महातग्रन्थ समास होकर प्रसिद्ध हुआ । इस ग्रन्थके संपादनकार्यकी महत्ता और विशिष्टताको देख कर, जर्मनीके प्रो० हर्मन् याकोबी जैसे महान् संस्कृतविद्यानिष्ठ विद्वान्ने लिखा था कि 'भारतीय दर्शनशास्त्रके इस प्रौढतम एवं अतिगहन ग्रन्थका, इस तरहसे सुसंपादन करनेवाला युरोपमें तो आज कोई पण्डित विद्यमान नहीं है। इत्यादि । मूल ग्रन्थका सटीक संपादन समास कर, फिर उसकी प्रस्तावनाके रूपमें, पंडितजीने गुजरातीमें एक और भाग तैयार किया, जिसमें सन्मति के मूलका सविवेचन गुजराती भनुवाद तथा ग्रन्थसे संबड ऐसी ऐतिहासिक एवं तास्विक चर्चाका ऊहापोह करनेवाली अनेक बातोंकी मीमांसा की है। इसमें सिरसेन दिवाकरके विषयमें प्रायः सभी ज्ञातव्य विचारोंका पण्डितजीने सप्रमाण यथेष्ट विवेचन किया है। प्रज्ञाचक्षु होते हुए भी पण्डितजीने इस अन्यके संपादनकार्यमें अपनी जिस सूक्ष्म विचाररष्टि और मानसिक अवगाहनशक्तिका अप्रतिम परिचय दिया है वह तज्ज्ञोंके लिये बडा आश्चर्योत्पादक है। केवल जैन शामोंकी ही रष्टिसे नहीं, अपितु भारतके सभी दार्शनिक शास्त्रोंके संपादन-संशोधनकी रष्टिसे पण्डितजीका यह संपादनकार्य एक भादर्शरूप होना चाहिये। ९ 'सन्मति के संपादनके बाद, पण्डितजीने दिवाकरजीके न्यायावतार' मूत्रका गुजराती भनुवाद और उसमें विवेचित पदार्थोंका सारगर्भित विवेचन लिखा, जो मेरे द्वारा संपादित उसी 'जैन साहित्य संशोधक'के तीसरे खण्डमें प्रकाशित हुआ है। इस निबन्धमें पण्डितजीने जैन न्यायशासके इस आय प्रन्यके विषय में अभ्यासियोंके जानने और मनन करने लायक सभी विषयोंका, संक्षित परंतु बहुत ही सरक एवं सारभूत शैलीमें, स्पष्टीकरण किया है। १. इसके बाद, सिद्धसेन दिवाकरकी एक भतिगहन 'वेदवादद्वात्रिंशिका' नामक काव्यकृति पर पण्डितजीने बहुत परिशीलन करके गुजरातीमें विवरण लिखा, जो मेरे संपादित 'भारतीय विद्या' नामक त्रैमासिक पत्रिकाके 'बहादुरसिंहजीसिंधी स्मारक' रूप तृतीय खण्डमें प्रकाशित हुमा है। इस द्वात्रिंशिकाके 'किंचित् प्रास्ताविक' में मैंने लिखा था कि-'यह द्वात्रिंशिका, सचमुच, समुचय संस्कृत साहित्य में, एक बहुत गूढ और गम्भीर अर्थपूर्ण रचना है। दार्शनिक और साहित्यिक विद्वानोंको इसका कुछ भी परिचय अद्यावधि प्राप्त नहीं हुआ है। इसका भाव भी समझना बहुत कठिन है। जैन और वेदवादके निगूड तत्वोंका जिसको परिपूर्ण परिचय नहीं है उसको प्रस्तुतहानिक्षिकाका मी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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