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________________ कुछ प्रास्ताविक विचार। गुरुजीकी सुनाई हुई, सिक्सेन दिवाकर द्वारा उसी महाकालेश्वरके लिंगके टुकडे टुकडे कर दिये जानेवाली, कथाका मरण हो आया । 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्र तो मुझे उस समय भी कंठस्थ था ही । मेरे मनमें माया कि यदि मैं कुछ जरा बडी उनका होता और अपने गुरुजीके पाससे विधिपूर्वक कुछ मंत्र-तंत्र सीख पाता, और उसी कल्याणमन्दिर स्तोत्रके पाठ द्वारा, मैं भी आज यहां बैठ कर, इस दुष्ट वाक्षण पंडेके सामने ही, उसी तरह महाकालका लिंग स्फोटन कर, जैन मूर्ति प्रकट सकता, तो जैन साधुका कितना माहात्म्य बढा देता और इन जैनद्वेषी ब्राह्मणों को कैसा नीचा दिखा देता । महाकालके मन्दिरके देखनेकी उस उद्विग्न स्मृतिका चित्र मुझे वर्षोंतक सताता रहा, और सिद्धसेन दिवाकरकेसे मंत्रसामर्थ्यकी प्राप्तिकी मैं झंखना करता रहा। ३ मैंने अपने बाल मनोभावके अनुसार, उस संप्रदायमें जो बडे साधु थे उनसे महाकालके बारेमें कुछ जिज्ञासा की और अपने गुरुजीके पाससे जो सिद्धसेनकी कथा सुनी हुई थी उसके विषयमें कुछ विशेष जानना चाहा तो उन्होंने झट से उत्तर दे दिया कि 'अरे वे जतडे लोग यों ही गप्पें मारा करते हैं और मन्दिर और मूर्तिका पाखंड चलानेके लिये ऐसी कहानियां घडते रहते हैं !' साधुजी महाराजका यह कथन मुझे कुछ रुचा नहीं । क्यों कि मेरी श्रद्धा मेरे उन स्वर्गवासी गुरुजीके बहुविध ज्ञान और प्रभावशाली व्यक्तित्व पर जैसी जमी हुई थी वैसी इन साधु महाराज पर नहीं जमी थी। उसके बाद मैं मन-ही-मन अनेक कारणोंसे विक्षुब्ध होता रहा। खास करके जैन साहित्य और जैन इतिहासके अध्ययनकी अज्ञात उत्कंठा ज्यों-ज्यों मुझे विशेष सताने लगी त्यों-त्यों मैं उस संप्रदायसे विरक्त होने लगा, और परिणाममें कुछ वर्षों बाद (वि. स. १९६५ में) उसी उजैनमें रहते हुए, मैं एक दिन उस संप्रदायसे, पिंजडेमें पडे हुए पशु-पक्षिकी तरह, भाग निकला। ४इसके बीचमें, मुझे श्वेतांबर मूर्तिपूजक संप्रदायके सुप्रसिद्ध विद्वान् आचार्य श्रीआस्मारामजी महाराजके बनाए हुए 'सम्यक्त्वशल्योद्धार' तथा 'जैनतत्त्वादर्श' आदि ग्रन्थ पढनेको मिले जिससे मेरी श्रद्धा इस संप्रदायकी तरफ विशेष आकर्षित हुई। अतः स्थानकवासी संप्रदायकी दीक्षाका त्याग कर मैंने इस संप्रदायकी दीक्षा ली-या यों कहना चाहिये कि पहली दीक्षाका त्याग कर दूसरी दीक्षाके साथ पुनर्विवाह किया। इस दूसरी दीक्षाने, मुझे अपनी अध्ययनविषयक लालसाको, थोडे बहुत रूपमें सन्तुष्ट करनेका अवसर दिया । इससे अन्यान्य जैन पूर्वाचायाँके साथ सिद्धसेन दिवाकरके विषयमें भी मुझे कुछ ऐतिहासिक तथ्यके जाननेका सुयोग प्राप्त हुआ। ५मैं अपने थे 'कुछ प्रास्ताविक विचार' सिद्धसेन दिवाकरकी कृतिसे सम्बद्ध ऐसे एक अन्यके विशिष्ट संस्करणको उद्दिष्ट करके लिखने प्रस्तुत हुआ हूं, इसलिये सिद्धसेन दिवाकरका पुण्य नाम, अपने जीवनमें सबसे पहले मुझे कब श्रवणगोचर हुआ, इसकी स्मृति के निदर्शक उपर्युक्त सरण-संस्कारोंको, यहां पर आलेखित करनेकी ऊर्मिको मैं दबा नहीं सकता और इसलिये मुझे ये कुछ पंक्तियां लिखनी पड़ी। ६ उक्त प्रकारसे बालपनमें गुरुमुखसे सिद्धसेनका नामश्रवण करने बाद, आत्मारामजीके 'जैनतत्त्वादर्श' नामक पुस्तक में सबसे पहले सिद्धसेनका कथात्मक इतिहास मुझे पढनेको मिला। बाद में धीरे धीरे जिज्ञासा जैसे बढती गई और अध्ययनकी दृष्टि जैसे खुलती गई, वैसे वैसे इनके विषयकी प्राचीन साहित्यिक सामग्रीका अनुशीलन करमेकी प्रवृत्ति भी बढती रही। इसके परिणाममें प्रबन्धचिन्तामणि आदि ग्रन्थों तथा अन्यान्य वैसे प्रबन्धों आदिके अवलोकन द्वारा, जो कुछ मुझे ऐतिम तथ्य ज्ञात हुआ तथा सिद्धसेनकी कुछ कृतियोंके पठन-मननसे जो कुछ सार मेरी समझमें आया, उसके फलस्वरूप, जैन साहित्य और इतिहासके अन्वेषणात्मक लेखों, निबन्धों, विचारों आदिको प्रकाशमें लानेकी दृष्टिसे, सर्व प्रथम मेरे द्वारा संपादित और संचालित 'जैन साहित्यसंशोधक' नामक त्रैमासिक पत्रके प्रथम अंकमें, (सन् १९१९२० में) 'सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' इस नामका एक लेख लिख कर मैंने प्रकट किया। ७कोई ३० वर्ष पहले लिखे गये उस छोटेसे लेखमें, सिद्धसेनके विषयमें जो कुछ साररूपसे मैंने लिखा है उसमें कुछ विशेष संशोधन या परिवर्तन करने जैसा कोई खास विचार, अभी तक भी प्रकाशमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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