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छ प्रासाविक विचार। परोपरि मेरे द्वारा संपादिव इस प्रन्धमालाको, मेरी पति और मापनाके मुताबिक सुन्दर । मुद्रण कार्यमें, इनका सहानुभूतिपूर्ण सहयोग न मिशता, तो शायद ही मैंइस प्रकार माज तक इतने प्रन्योको प्रकट करने में सफल होता । विश्वव्यापी दुष्टतम विगत महायुडके कारण, संसारके सब व्यवहारोंमें जो महाविषमता उत्पर हुई है, उसके निमित्त साहित्यके प्रकाशनमें भी बहुत ही विषम समसाएं उपस्थित हो गई है। ऐसी परिस्थिति में भी निर्णयसागर के मंत्रबाहक और कर्मकर (कामदार) गणने मुझे अपनी इस अन्धमालाके कार्यको चालू रसनेमें, यथाशक्य जो सहयोग दिया है और देहे हैं, उसके लिये मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करना अपना कर्तव्य समझता हूं। मार्गशीर्ष शुक,सं.२००५) . (ता.१-१२-१९४०),
-जिन विजय भारतीय विद्या भवन, बंबई ।
1 यों तो 'निर्णयसागर' प्रेसके साथ मेरा संबंध कोई ३५ वर्षोंसे ऊपरकर है। मेरी सबसे पहली संपादित एक 'मजायउंछकुलक' नामक छोटीसी प्राकृत-संस्कृत कृति, सन् १९१४-१५ में, इस प्रेस में छपी थी और उसी समयसे मेरा इस.प्रेसके साथ संबन्ध जुडा हुआ है। "सिंघी जैन ग्रन्थमाला' का आरंभ करने के पूर्वमें, 'जैन साहित्यसंशोधक प्रयावति, तथा 'गुजरात पुरातत्त्वमदिर प्रन्यावलि के कई प्रन्य भी मैंने इसी प्रेसमें मुद्रणाय दिये थे। पर पण्डित सुखलालजी द्वारा संपादित जिस 'सन्मतिप्रकरण' अन्धका जिक्र किया है वह पूरा अन्य इची प्रेसमें छपवा कर प्रकट किया गया था।
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