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________________ आदिवाक्य । लेखक- पं० श्री सुखलालजी संघवी । सिंगी जैन मैन मन्यमाकाका प्रस्तुत प्रम्यरत अनेक दृष्टिले महत्ययाका एवं उपयोगी है। इस मन्यमे तीन कोनोंकी कृतियाँ सम्मीलित है। सिद्धसेन दिवाकर जो जैन व आचमनेता है उनकी 'व्यापावतार' नामक छोटीसी पचबद्ध कृति इस ग्रन्थका मूड आधार है। सामाचार्य पचद वार्तिक और गद्यमय वृद्धि थे दोनों 'न्यायावतार की व्याख्यायें है। व्यायामें आए हुए सन्तयोंमेंसे अनेक महत्वपूर्ण मन्तब्यौको लेकर उनपर ऐतिहासिक एवं पहले किये हुए सारगर्भित तथा बहुश्रुततापूर्ण टिप्पण, अतिविस्तृत प्रस्तावना और भसके तेरह परिशिष्ट-यह सब प्रस्तुत प्रम्यके संपादक श्रीबुत पवित मालवणिवाकी कृति है। इन तीनों कृतियोंका विशेष परिचय, विषयानुक्रम एवं प्रस्तावनाके द्वारा अच्छी तरह हो जाता है । अत एव इस बारे में महाँ अधिक दिखना अनावश्यक है। 1 प्रस्तुत ग्रन्थके संपादनकी विशिष्टता । यदि समभाव और विवेकी मर्यादाका अतिक्रमण न हो तो किसी अतिपरिचित व्यक्तिय समय पक्षपात पूर्ण समीचित्य दोषले बचना बहुत सरल है। श्रीयुत एकहुलभाई माकवनिया मेरे विद्यार्थी, सहसंपादक, सहाध्यापक और मित्ररूपचे चिरपरिचित है। इन्होंने इस मम्यके संपादनका भाजपचे हा दिया तबसे इसकी पूर्णाहुति तकका में निकट साक्षी हूं। इन्होंने टिप्पन, प्राचा आपका है उसको मैं पहिलेहीले यथामति देखता तथा उसपर विचार करता गाया हूं, इससे मैं यह दो दिसंकोच कह सकता हूँ कि भारतीय दर्शनमात्र खासकर प्रमाणशाखा सिंपोंके लिये श्रीयुत मालवनियाने अपनी कृतिमें जो सामग्री संचित व व्यवस्थित की है तथा विशेषणपूर्व उसपर जो सपना विचार प्रकट किया है, यह सब अन्य किसी एक जगह दुर्लभ ही नहीं प्राय है। पचपि टिप्पण, प्रस्तावना आदि सब कुछ जैन परंपराको केन्द्रस्थान में रख कर डिखा गया है, तथापि सभी संभव में तुलना करते समय करीब करीब समग्र भारतीय दर्शनोंका र छोनपूर्व ऐसा कहापोह किया है कि वह चर्चा किसी भी दर्शनके अभ्यासीके लिये लाभप्रद सिद्ध हो सके। प्रस्तुत प्रत्यके छपते समय डिप्पण- प्रस्तावना आदिके फॉर्म ( Forms) कई मित्र मिश्र दर्शनके पंडित एवं प्रोफेसर पडनेके लिये से गये, और उन्होंने पढ कर बिना ही पूछे, एकमत से जो अभिमान प्रकट किया है वह मेरे उपर्युक्त कथनका नितान्त समर्थक है में भारतीय प्रमाणशाखके अध्यापक, पंडित एवं प्रोफेसरोंसे इतना ही कहना आवश्यक समझता हूँ कि वे यदि प्रस्तुत टिप्पण, प्रसावना मौर परिशिष्ट ध्यानपूर्वक पड जायेंगे तो उन्हें अपने अध्यापन, लेखन आदि कार्यमें बहुमूल्य मदद मिलेगी। मेरी राय में कमसे कम जैन प्रमाणशास्त्र के उच्च अभ्यासियोंके लिये, डिप्पनोंका अमुक भाग तथा प्रखावना, प्रथमे सवैया रखने योग्य है जिससे कि ज्ञानकी सीमा एवं दृष्टिकोण विशाक बन सके और दर्शनके झुक्यमान असांप्रदायिक भावका विकास हो सके। टिप्पण और प्रस्तावनागत चर्चा मित्र मिश्र कालखण्डको लेकर की गई है। टिप्पणोंमें की गई चर्चा शुक्राचा विक्रमकी पंचम शताब्दीसे लेकर १० वीं शताब्दीतकके दार्शनिक विकासका संपर्क करती है जब कि प्रस्ताबनामें की हुई चर्चा मुख्यतया लगभग विक्रमपूर्व सहस्राब्दीसे लेकर विक्रमकी पंचमशताब्दी ass प्रमाण प्रमेय संबंधी दार्शनिक विचारसरणी के विकासका स्पर्श करती है। इस तरह प्रस्तुत प्रत्य एक तरह भग ढाई हजार वर्षकी दार्शनिक विचारधाराओंके विकासका व्यापक निरूपण है जो एक तरफसे जैन परंपराको और दूसरी तरफसे समानकालीन या भिकालीन जैनेवर परंपराओंको ०६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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