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________________ आविषाक्य । करता है। इसमें जो तेरह परिशिष्ट है वे मूल व्याख्या और टिप्पणके प्रवेशद्वार या उनके भवलोकनार्थ मेनस्थानीय है। श्रीयुत मालवणियाकी कृतिकी विशेषताका संक्षेपमें सूचन करना हो, तो इनकी बहुभुतता, तटस्थता और किसी भी प्रभके मूलके खोजनेकी ओर झुकनेवाली दार्शनिक ट्रिकी सतर्कता द्वारा किया जा सकता है। इसका मूल ग्रन्थकार दिवाकरकी कृतिके साथ विकासकालीन सामंजस्य है। जैन ग्रन्थोंके प्रकाशन सम्बन्धमें दो शब्द । भनेक म्यक्तिोंके तथा संस्थाओंके द्वारा, जैन परंपराके छोटे बड़े सभी फिरकों में प्राचीन भवांचीन प्रन्योंकि प्रकाशनका कार्यबहत जोरोंसे होता देखा जाता है, परंतु अधिकतर प्रकाशन सांप्रदायिक संकुचित भावना और स्वाग्रही मनोवृत्तिके द्योतक होते हैं। उनमें जितना ध्यान संकुचित, स्वमताविष्ट वृतिका रखा जाता है उतना जैनस्वके प्राणभूत समभाव व अनेकान्त रष्टिमूलक सत्यस्पर्शी अत एवं निर्भय ज्ञानोपासनाका नहीं रखा जाता। बहुधा यह भुला दिया जाता है कि अनेकान्तके नामसे कहाँ तक अनेकान्तररिकी उपासना होती है । प्रस्तुत प्रन्यके संपादकने, जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, ऐसी कोई खाग्रही मनोवृत्तिसे कहीं भी सोचने लिखनेका जान बुझ कर प्रयन नहीं किया है। यह ध्येय "सिंघी जैनग्रन्थमाका के संस्थापक और प्रधान संपादककी मनोवृत्तिके बहुत अनुरूप है और वर्तमानयुगीन व्यापक हामखोजकी दिशाका ही एक परंतु विशिष्ट संकेत है। में यहाँ पर एक कटुक सत्यका निर्देश कर देनेकी अपनी नैतिक जवाबदेही समझता हूँ। जैन धर्मके प्रभावक माने मनाए जानेवाले ज्ञानोपासनामूलक साहित्यप्रकाशन जैसे पवित्र कार्यमें भी प्रतिष्ठालोलुपता मूलक चौर्यवृत्तिका दुष्कलंक कभी कभी देखा जाता है । सांसारिक कामों में चौर्यवृत्तिका बचाव अनेक छोग अनेक तरहसे कर लेते हैं, पर धर्माभिमुख शोनके क्षेत्रमें उसका बचाव किसी भी तरहले क्षम्तन्य नहीं है। यह ठीक है कि प्राचीन कालमें भी ज्ञानचोरी होती थी जिसके योतक 'बैकारणऔरः कविमौरः' जैसे पाल्योउरण हमारे साहित्यमें आज भी मिलते हैं, परंतु सत्यलक्षी वर्शन और धर्मका दावा करनेवाले, पहले और आज भी, इस प्रतिसे अपने विचार व लेखनको दूषित होने नहीं देते और ऐसी चौपदचिको अन्य चोरीकी तरह पूर्णतया प्रणित समझते है । पाठक देखेंगे कि प्रस्तुत प्रन्धके संपादकने पेसी पणित सिले मल-शिक्षबचनेका समान प्रयास किया है। टिप्पण हों या प्रस्तावना-जहाँ जहाँ गये पुराने प्रन्धकारों एवं लेखकोंसे योग भी अंश लिया हो वहाँ उन सबका या उनके प्रन्योंका स्पट नामनिर्देश किया गया है। संपादकने भनेकोंके पूर्व प्रयनका अवश्य उपयोग किया है और उससे भनेकगुण काम भी उठाया है पर कहीं भी अन्यके प्रयत्नके यशको अपना बनानेकी प्रकट या अप्रकट चेष्टा नहीं की है। मेरी हिमें सचे संपादककी प्रतिष्ठाका यह एक मुख्य आधार है जो दूसरी अनेक त्रुटियोंको भी क्षन्तव्य बना देता है। - १.मैं यहाँ इतना यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि ऊपर जो विचार मैंने प्रदर्शित किया है वह साभिप्राय है।क्यों कि मैं इसके विपरीत मनोवृत्तिवाले संपादकोंको भी थोडा बहुत जानता हूँ और कुछएकका नामनिर्देश करना भी यहां उचित समझता हूँ। क्यों कि ऐसा विना किये वैसे परप्रयनजीवी लोगोंको अपने दोषका शायद ही सवाल भावे । मैं अपने तत्त्वार्थविवेचनकी हिन्दी आवृत्तिमें, प्रो. हीरालाल रसिकलाल कापडिया एम्. ए. तथा एक भाई मुणोतके ऐसे चौर्यकार्यका उल्लेख कर चुका है, जिन्होंने अनुक्रमसे तत्त्वार्थकी प्रस्तावना और उसके विवेचनको कुछ उलटा मुलटा कर और ज्यों का त्यों लेकर भी, यह स्पष्ट शब्दोंमें नहीं लिखा कि यह मौलिक चिंतन व कार्य अमुकका है और हम तो उसका कुछ हेरफेरके साथ या सीधा अनुवाद भर करते हैं। मैं यहां पर एक ऐसी ही अन्य चोरीका निर्देश भी दुःखपूर्वक करना चाहता हूँ। जिस व्यक्तिका इससे संबंध है वह है तो मेरा एक विद्यार्थी, पर मैं अपने विद्यार्थी के नाते भी उसके ऐसे दोषको प्रकट करना ही अधिक न्याय्य समझता न्यायाचार्य पं.दरबारी लाल कोठिया जो सरसावा 'वीरसेवा मंदिर के एक कार्यकर्ता हैं, उनका अनुवादित-संपावित 'न्यायबीपिका' प्रन्थ प्रसिद्ध हुआ है। उसकी प्रस्तावना और 'प्रमाणमीमांसा के मेरे हिन्दी टिप्पण दोनोंको तज्ज्ञ निपुण अभ्यासी देख जाय तो वह तत्काल जान सकेगा कि कोठिया महाशयने करीब करीब मेरे सब हिन्दी टिप्पणोंकी कायाको तोड मरोड कर मौर उसमें कहीं कहीं जरासा मसाला भरके, अपनी सारी प्रस्तावनाका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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