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आदिवाक्य |
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रूप
मेरी तरह पं० एकल मानवनिया की भी मातृभाषा गुजराती है। प्रन्थरूपमें हिन्दीमें इतना विस्तृत लिखनेका इनका शायद यह प्रथम ही प्रयत है। इस लिये कोई ऐसी आशा तो नहीं रख सकता कि मांभाषा जैसी इनकी हिन्दी भाषा हो परंतु राष्ट्रीय भाषाका पद हिन्दीको इस लिये मिला है कि वह हरमुक मान्तवालेके लिये अपने अपने ढंग से सुगम हो जाती है। प्रस्तुत हिन्दी लेखन कोई साहित्यिक नहीं है। इसमें तो दार्शनिक विचारविवेचन ही मुख्य है। जो दर्शनके और प्रमाण शास्त्र के विशालु पूर्व अधिकारी है उन्होंकि उपयोगकी प्रस्तुत कृति है। वैसे जिज्ञासु और अधिकारी के लिये भाषातत्व मौज है और विचारतस्व ही मुख्य है। इस दृष्टिले देखें तो कहना होगा कि मातृभाषा न होते हुए भी राष्ट्रीय भाषा में संपादकने जो सामग्री रखी है वह राष्ट्रीयभाषा के नाते व्यापक उपयोगकी वस्तु बन गई है।
जैन प्रमाण शास्त्रका नई दृष्टिसे सांगोपांग अध्ययन करने वालेके लिये इसके पहले भी कई महत्त्वके प्रकाशन हुए हैं जिनमें 'सम्मतितर्क' 'प्रमाणमीमांसा', 'ज्ञानविन्दु', 'अकलंकप्रन्थत्रय', 'श्यामकुमुदचन्द्र' आदि मुख्य हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ उन्हीं प्रत्येक अनुसन्धानमें पढा जाय तो भारतीय प्रमाणशास्त्रों में जैन प्रमाणशास्त्रका क्या स्थान है इसका ज्ञान भलीभाँति हो सकता है, और साथ ही जैनेतर अनेक परंपराओंके दार्शनिक मतका रहस्य भी स्फुट हो सकता है ।
सिंघी जैन ग्रन्थमालाका कार्यवैशिष्ट्य ।
सिंघी जेनप्रन्थमालाके स्थापक स्व० बाबू बहादुर सिंहजी स्वयं श्रद्धाशील जैन थे पर उनका दृष्टिकोण साम्प्रदायिक न हो कर उदार व सत्यलक्षी था। बाबूजी के दृष्टिकोणको विशद और मूर्तिमान बनानेवाले प्रथमाल के मुख्य संपादक हैं। आचार्य श्री जिनविजयजीकी विविध विद्योपासना, पम्थकी संकुचित मनोवृत्तिसे सर्वथा मुक्त है । जिन्होंने ग्रन्थमाला के अभीतक के प्रकाशनों को देखा होगा उन्हें मेरे कथनकी पथार्थतामें शायद ही संदेह होगा। प्रन्थमालाकी प्राणप्रतिष्ठा ऐसी ही भावना है जिसका असर ग्रन्थमालाके हर एक संपादककी मनोवृत्ति पर जाने अनजाने पडता है। जो जो संपादक विचार-स्वासय एवं निर्भयसत्यके उपासक होते हैं उन्हें अपने चिन्तन लेखन कार्यमें प्रन्थमालाकी उक भूमिका बहुत कुछ सुअवसर प्रदान करती है और साथ ही ग्रन्थमाला भी ऐसे सत्याम्बेषी संपादकों सहकारसे उत्तरोत्तर भोजली एवं समयानुरूप बनती जाती है। इसीकी विशेष प्रतीति प्रस्तुत कृति भी कराने वाली सिद्ध होगी ।
नवरंगपुरा, अहमदाबाद
- सुखलाल
कलेवर केसा बनाया है। साधारण पढनेवाला या अनजान प्रथमाभ्यासी उसे पढ कर यही समझ पाता है कि खाना लेखक महोदयने ही प्रस्तावनानें लिखा सब कुछ सोचा है और गुरुवर्य सुखलालजी के प्रन्थका तो मात्र अध्ययनमें या दिशा चनमें उपयोगभर किया है। जब कोठियाजीने आभारप्रदर्शनमें मेरे प्रन्धके उपयोग करने की बात लिखी तब उनका यह नैतिक कर्तव्य था कि वह उपयोग किस तरह और किस रूपने किया है यह बताते । उपयोग शब्द इतना अधिक व्यापक, सुंदर पर संदिग्ध है कि जिसके द्वारा कृतज्ञता प्रकाशनका काम भी बनी हो सकता है और परप्रयमका प्रकट-अप्रकट अपहरण भी छुपाया जा सकता है। मेरे इस कटुक सत्यके निर्देशसे कोठियाजी सावधान हो जायेंगे तो उनका सारा आगेका साहित्यिक जीवन अवश्य यशोलाभ करेगा ।
[पण्डितजीके द्वारा मुझे जब इस बात का पता लगा कि पण्डित कोठियाने, 'प्रमाणमीमांसा' में लेखबद किये गये पण्डितजीके चिन्तनपूर्ण मौलिक विचारोंको, बनारसी ठगकी तरह, ज्यों के ज्यों उडालिये हैं और 'बीरसेवा मन्दिर' जैसी प्रतिष्ठित और सेवानिष्ठ कहलाने वाली संस्था संचालक सूचक एवं मूक सहकार प्रसिद्धिमें रख कर अपनी स्वार्थसिद्धि करनी चाही है, तब मुझे अत्यन्त ग्लानि और उमिता दो आई। पण्डित कोठियाका यई तरकर कार्य तो कानुनी अपराधजनक होनेसे 'सिंपी जैन अन्यमाला' के खत धारण करनेवाले भारतीय विद्या भवनके कार्यवाहक इस पर कुछ कानुनी कारवाई करने का भी मुझे सूचन करने लगे। परंतु मैंने 'दुर्जनाः परितुष्यन्तु खेन दौरात्म्यकर्मणा । इस निर्वेद भावनाका विचार कर उस सूचनकी तरफ उपेक्षा करना ही समुचित समझा । प्रन्थमाला संपादक ]
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