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________________ संपादकीय वक्तव्य । प्रस्तुत संस्करण सन् १९१७ में बनारससे प्रकाशित पंडित' नामक संस्कृत अन्यप्रकाशक मासिक पत्रमें जैनतर्कवार्तिकम्' के नामसे जो ग्रन्थ छपा था उसीका यह नया संस्करण 'न्यायावतारसत्रबार्तिकवृत्ति' है। प्रस्तुत संस्करणके प्रारंभमें 'न्यायावतारसूत्र' और 'वार्तिक' दिये गये है तदनन्तर 'वार्तिकवृत्ति' जिसका नाम 'विचारकलिका' है, दी गई है। पंडित में 'वार्तिक'को समाविष्ट करके 'वार्तिकवृत्ति' दी गई थी और 'वार्तिक'को पृथक् नहीं दिया था।मत एवं उसमें 'वार्तिक'की कई कारिकाएँ छूट गई हैं। का. ५, ७, १०, १२ पू०, २१ उ०, और ५३ये, कारिकाएँ 'पंरित' संस्करण में नहीं है। जो प्रतियाँ मैंने देखीं या जिनका वर्णन सूचीपत्रों में पढा, प्रायः उन सभी में यही क्रम है कि प्रथम वार्तिक' की कारिकाएं दी गई हैं तदनन्तर 'वृत्ति' लिखी गई है। वृत्तिमें 'वार्तिक' की कारिकाओंकी प्रतीके मात्र दी गई हैं, पूरी कारिकाओंको उद्धृत नहीं किया। यही बात 'पंडित' संस्करणकी आधारभूत प्रतिके विषय में भी कही जा सकती है। मत एवं यह संपादक महोदयकी ही त्रुटि है कि उन्होंने उक्त कारिकाओंको यथास्थान प्रतीकके होते हुए भी उरत नहीं किया। प्रस्तुत संस्करणमें वार्तिककी सभी कारिकामोंको, यथास्याम प्रतीक देख कर उत किया गया है। पंडित' के संस्करणको संशोधित-संपादित-मुद्रित पुस्तक न कह करके इतना ही कहना पर्याप्त है कि जैसे प्रतिलेखक लिखते हैं कि 'याशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया ।' वैसे, 'पंडित' संस्करणके संपादक इतना भी नहीं कह सकते कि 'याशं पुस्तके ई ताशं मुद्रितं मया।' क्यों कि उनको पुस्तककी प्रतिको पढने में तो भ्रम रहा ही, इसके अलावा मुफ संशोधनमें और भपनी कल्पनाके घोड़े दौरा कर भी उन्होंने उस संस्करणको अशुद्धिोंसे परिपूर्ण कर दिया है। मैंने प्राचीन वाउपत्रकी प्रतियोंके आधारसे प्रस्तुत संस्करणका संशोधन-संपादन किया है। यथाशक्ति अगाडि टाकनेका प्रयन करने पर भी कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं जिन्हें टिप्पणों में ठीक किया गया है और शेषके लिये एक शुद्धिपत्र भी दे दिया है। फिर भी मनुष्यसुलभ प्रान्तियाँ रह गई हों यह संभव है। कुछ अशुद्धियोंके सूचनके लिये मुनिश्री जम्बूविजयजीका मैं आभारी हूँ। प्रति परिचय प्रस्तुत संस्करणमें निम्नलिखित प्रतियों का उपयोग हुआ है'अ' संघवीपाडा भंडार, पाटणकी यह ताडपत्रकी प्रति है। इसका नंबर १५४.१.है। इसके ऊपर बार्तिकवृत्ति' ऐसी संज्ञा लिखी हुई है। पत्र के द्वितीय पृष्ठ से वार्तिक शुरू होकर पत्र के प्रथम पपर वह पूर्ण हुआ है । इसके बाद के पत्रका अंक ७ होना चाहिए था किन्तु अंक ५ दिया गया है। इस पत्रके द्वितीय पृष्ठसे वार्तिक वृत्तिका प्रारंभ हुआ है और पत्र १८५ के प्रथम पृष्ठ पर वह पूर्ण हुई है। भादिके छह तदनन्तर पांचवा और अन्तिम दो पत्र खण्डित हैं । पत्र ७२ से ८१ गायब है । शेष पत्र भच्छी स्थितिमें हैं। प्रति सुवाच्य और शुद्ध है। एक पृष्ठमें अधिकसे अधिक ५ और कमसे कम पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्तिमें ६० के आस पास अक्षर हैं । लेखन संवत नहीं है।' 'ब' यह भी संघवीपाडा भंडार, पाटण की ताडपत्रकी प्रति है । इसका नम्बर १८७.१ है । इस प्रतिके ऊपर 'बार्तिकआदि ३ प्रकरणो' ऐसी संज्ञा दी है । अर्थात् इस प्रतिमें क्रमशः १ वार्तिक और इसकी वृत्ति, २ न्यायावतारसूत्र और उसकी वृत्ति, तथा ३ न्यायप्रवेशक सूत्र है। इस प्रतिके प्रथम १इस प्रतिका परिचय Catalogue of manuscripts ab Pattan (G.O.S.) में दिया है। देखो पृ.४१ वहाँ इसका नंबर ५३ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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