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________________ संपादकीय वक्तव्य | ६२९ पत्रके द्वितीय पृष्ठसे 'वार्तिक' का प्रारंभ हुआ है और पत्र ३ के प्रथम पृष्ठ पर वह पूर्ण हुआ है। पत्र के द्वितीय इसे 'वार्तिक' हुई है और पत्र 101 के प्रथम पृष्ठ पर वह पूर्ण हुई है। प्रति सुचाच्य और शुद्ध है। एक में अधिक से अधिक आठ और कमसे कम पांच पंक्तियाँ हैं। एक पंकि करीब ७२ अक्षर है। इस प्रतिका ३९ व पत्र कागजका है। प्रायः सभी पत्रोंका दाहिनी भोरका मंच है। लेखन संबद इसमें भी नहीं है। 'क०' श्रीजात्माराम जैनशान मंदिर, बडोदा, की कागज पर किसी प्राचीन प्रतिके आधार से लिखी हुई यह प्रति है। इसका नंबर ३ है और इसके ऊपर 'शास्त्रार्थसंग्रहवार्तिकद्धि' ऐसी संज्ञा दी हुई है। प्रति आधुनिक है और प्रतीत होता है कि जेसलमेरकी प्रतिकी यह नकल है। इसके पत्र हैं। प्राचीन प्रतिके अक्षरोंका ज्ञान ठीक न होनेके कारण लेखकने अनेक भी भूलें की हैं। इसमें 10 में और १५ पत्रका म्युत्कम हो गया है। २३ का अंक दो बार दिया गया है। उसमें भी २ का स्थान २ को मिलना चाहिए। जिस प्रतिके आाधारसे यह नकल की गई है वह अंटित होगी ऐसा इस प्रतिके ४५ और ६ पत्र गत डिसकी निशानीसे स्पष्ट है। साई १३३३" हैं। प्रत्येक हमें पंकित १६ और अक्षर ६५ के भासपास है। इसकी लेखकप्रशासिके लिये देखो ० १२२ की टिप्पणी 13 '०' 'जेनवार्तिक के नामसे बनारस से सम १९१७ में जो पुत्र है नही पड़ है। यह तो अत्यन्त अशुद्ध है। इसका आधार सं० १९६५ में किसी गई कोई प्रति है । वह प्रति भी संभव है कि बनारस के रामवाट के बड़े जैनमंदिर में स्थित श्री कुपाखचन्द्र जैन ज्ञानमंचार की, सं० १९४५ में किसी नई 'जैनतर्कवार्तिकम्' नामक पोथी नं० ५ की प्रतिलिपि हो । मु० तथा उच भंडार की, प्रतिको मिलाने से यह स्पट होता है । यह भी संभव है कि इन दोनोंका आधार कोई तीसरी ही प्रति हो । श्री कुलचन्द्र जैन ज्ञानभंडार की प्रति सुलभ करने के लिये आचार्य भी हीराचन्द्रजीका में आभारी हूँ । प्रतियों का वर्गीकरण । अ० और ब० प्रतिमें कहीं कहीं पाउमेद होने पर भी इन दोनोंका वर्ग एक है, क्योंकि ये दोनों प्रतिष अधिकांशमें एक जैसा पाठ उपस्थित करती है और उनका वैलक्षण्य अधिकांश क० र ० a स्पष्ट है। दूसरी ओर क० और सु० का भी एक वर्ग है क्योंकि पत्र मी अधिकांशमें इन दोनों प्रतियोंमें एक जैसा पाठ मिलता है और वह विलक्षण होता है। अत एव यह कहा जा सकता है कि इन चारों प्रतियोंका मूलाधार दो प्रतियाँ होंगी जिनमेंसे एकके आधारसे साक्षात् या परंपराले अ० और ६० लिखी गई क० और सु० का स्थान है। इन दोनों पाकमेद होते हुए अ० और ब० इन होंगी और दूसरीके परिवार में लिपिसम प्रतिके छपाने वाले पंडितको जैनलिपि या प्राचीन लिपिका कुछ भी ज्ञान नहीं था ऐसा सुवि मतिको देखनेसे स्पष्ट होता है मुतिसमें लिपिके अज्ञानके कारण शब्द कुछ का कुछ गया है। एका अक्षरके पढने में भ्रम होनेके कारण शब्दके दूसरे अक्षरोंका परिवर्तन अपनी बुद्धिसे कर सके समूचे रूपको ही बदल कर एक विचित्र पाउमैद उपस्थित किया गया है। ऐसे पाठभेदों को लेना पुखके कलेवरको निरर्थक बढाना है; ऐसा समझ कर मैंने उचित समझा कि लिपिश्रम किन किन अक्षरी और संयुक्ताक्षरोंमें हुआ है उनकी एक तालिका की जाय। तदनुसार जो तालिका बनी है वह मीचे दी जाती है। यह तालिका प्राचीन लिपिको ठीक न पडनेसे कैसी भ्रान्तियाँ होती है इसका दिग्दर्शन करानेके साथ ही संशोधक वर्गको हस्तलिखित प्रतियोंमें उपलब्ध अशुद्ध पाठोंके आधारसे शुद्ध पाठोंकी कल्पना करनेमें भी सहायक होगी। क्योंकि जैसी भ्रान्तियाँ मुद्रित पुस्तक संपादक को हुई हैं ऐसी ही भ्रान्तियों प्रतियोंके लेखकों को भी अधिकांश हुई है। निश तालिकामै प्रथमाक्षर शुद्धरूप है और दूसरा उसके स्थानमें जो छापा गया है वह है । मु० १ इस प्रतिके किये देखो, Catalogue of Manuscripts at Pattan (G.O.S.) p. 86. मिंबर १९९ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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