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संपादकीय वक्तब्ध।
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मच तत्र पम्प,म इसके महावा प्रामात्राकै स्थानमें कार की मात्रा और कार की मात्राको मात्रा समझकर एकारकी मात्रा, विसर्गके स्थानमें अनुस्वार और अनुस्वारके खानमें विसर्ग, एकारके स्थान में बबुखार वयाऽनवग्राहके खानमें भाकारकी मात्रा कर देनेसे भी भनेक पाठमेद हो गये है। इसके अलावा अनावश्यक अनुसार तथा अनुसारके कोपजन्य भी अनेक पाठमेद है। सभी प्रकार पाउमेदाणे मैनहिप्पणी खान नहीं दिया है। प्रस्तुत संस्करणका परिचय म्यावापतारसूत्र, बार्तिक, विचारकलिका नामक वार्तिकाति, तुलनात्मक टिप्पण और परिनिरास कमसे प्रस्तुत संस्करणका मुद्रण हुमा है । म्यापावतारका मुद्रण इस संस्करणमें इसकिने मावस्यक समझा गया कि पातिककारने उसीके अपर बार्तिक लिखा है। न्यायावतारका मुद्रणबांकी जैन कॉम्पस रा प्रकाशित सिर्षिकी टीकाके माधारसे तथा 'जैन साहित्य संशोधक' ... में प्रकाशित
सुखलालजी संपादित सानुवाद भ्यायावतारसे किया है। बार्तिक और बार्तिकतिका संपादन मैं पूर्वोक प्रतियोंके माधारसे किया है। जिस प्रतिका पाठपुर और संगत मावन पग उसको भूकमें साल दिया है शेषको नीचे टिप्पणोंमें स्थान दिया है। अपनी मोरसे जोकहीं कहीं पापुरिकीहै उसे
ऐसे कोहकमें रखा है। तथा कहीं कहीं पूर्वापर संबन्धको देखकर अक्षर या शब्दकी इदिकरना भावश्यक प्रतीत हुमा यहाँ उस रविको [ .]ऐसे कोडकमें रखा है।
जैन न्यायशाबको टीक ३ भवगत करने के लिये सम्म दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययनकी भावस्पताको महसूस करके मैने पाशक्ति इस प्रन्यके हिन्दी टिप्पण लिखे है। कहीं कहीं अन्मगत विषपकी जन्म प्रयासे शब्द और भर्थकी एकता देखकर उन प्रयोंके पाठदेकर या सिर्फ पंक्तिदेकर निर्देशकर दिया है। जिससे यह पता चले कि किन २ प्रन्योंका भरण प्रस्तुत प्रन्धकार पर है।
भन्समें प्रस्तुत संस्करण में उपयोगी ऐसे अनेक परिशिष्ट विषे गये हैं। प्रारंभमें प्रक्षावना,भागमयुगीन और भागमोत्तरकालीन सिक्सेनपूर्ववर्ती जैन दर्शनकी रूपरेखा देनेका प्रथम किया है। तथा अन्य नौर प्रयकतालोंके विषय में ज्ञातम्य बातोंकी विवेचना की गई है।
भाभारप्रदर्शन पूज्य पंडित भी सुखलालजीकी केवल प्रेरणाका ही नहीं, किन्तुमादिसे मन्त प्रस्तुत संस्करणको उपयोगी बनानेके उनके बहुविध प्रयका ही फक प्रस्तुत संस्करण है। उनके उतने प्रबनके होते हुए भी यदि इसमें कोई त्रुटि रह गई हो तो वह मेरी है। इस प्रन्यके संपादनकी प्रक्रिया में उन्होंने ममत्वमापसे रस लिया है। पाठदिसे लेकर परिशिट तक में मेरे जो प्रम थे उन्हें सुलझानेका पूरा मवत किया है इतना ही नहीं किन्तु मेरे हिन्दी टिप्पणोंको अक्षरशः पडकर प्रान्तियोंको दूर किया है। इन टिप्पणोंको मैं 'मेरे कहता हूँ इसका मतलब यह नहीं है कि इसमें जो कुछ लिखा गया है वह मेरा निजी है। वस्तुतः पंडितजीके दीर्घकालीन सहवासके कारण जो कुछ मैंने सीखा है उसीके एकमात्रको मैंने व्यक
१ इसके फल खरूप एक ही 'वाक्य' शब्दके वाच, बाध्य, और बाध्य ऐसे पाउमेद हुए।
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