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संपादकीय पकच
करनेकी की है। इसमें मैंने उनके लिखित और नलिखित विचारोंका पूरा पूरा उपयोग किया है। उन्होंने इन रिप्पणों की जांच करके संतोष म्पक किया है। पंडितजीने इस संस्करण में जो निष्काम परिश्रम उठाया है उसके लिये धन्यवादके दो शब्द पर्यास नहीं। उन्हें दृति इसी में है कि मेरी साहित्यिक प्रतिरोतर विकसित होती है। उनका निःस्वार्थभाव सदा पंदनीय है।
पू. मुतिमी बिनविजयवीने भी मेरे हिन्दी टिप्पणोंको देखकर उत्साहवर्धक पत्र लिनेमार प्रन्यका दिपीक कारण पने में बिलम्ब होता देखकर भी मेरी प्रवृत्तिको क्षियिक करने के बजाय साया है। कईचार मूक भी देते हैं। उनका सहनबह ही मुझमें उत्साह भर देता है। पुलककी छपाईकी सुन्द. रताका श्रेय उन्हीको मिलना चाहिए। मैं इस प्रसंगमें अपनी भांजली उन्हें अर्पित करता है।
पूज्यपाद मुनि श्री पुण्याविजयजीकी कृपाके कारण ही मुझे पाटण मंगरकी दोनों बाउपत्रकी प्रतियाँ देखने को मिली थी और उन्होंने बगैदाकी प्रति भी भिजवाई थी, एतदर्थ मैं उनका भाभारी हूँ।
प.पं.सुबकाजीक सम्मतितक, प्रमाणमीमांसा मावि अन्यके टिप्पणोंसे तो मैन काफी काम ग्ापा ही है। पं. महेन्द्रकुमारबीके न्यायमुवचन्द्र टिप्पणोंने भी मेरा परिश्रम अधिकमात्रामें हकका किया है। इतना ही नहीं किन्तुको प्रमों के बारे में उनके साथ चर्चा करके मैने विज्ञासाकी पति भी की है। एकवर्ष मैं उनका हौ ।
भाईमहेन्यामार अभय जैनदर्शनशाची, जो मेरे मात्र थे उन्होंने पू०पंडितजीको मेरे हिन्दी विपण मानेका वबा मेरी हिन्दीभाषाको परिमार्जित करनेका कार्य प्रेमसे किया है। अव एषरे बन्यवादाई है। श्री चन्द्र M. A. पार्थनाथ विद्याश्रमके भूतपूर्व अषिहाताने मी क० प्रतिले पाठान्तर लेने में सहायता की है।ौर श्री परमानन्द शाहने परिशिष्ट बनाने में मदद की है, उनका भी भाभार मानना मेरा कर्तव्य है। हिं विश्वविद्यालय
दलसुल मालवणिया बनारस
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