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________________ १३८ मतिबान । की है। और मेद दृष्टिका अवलंबन करनेवालों के अनुकूल होकर व्यवहार दृष्टिसे सर्वच की वही व्याख्या की है जो आगमोंमें तथा वाचकके तत्वार्थमें है । उन्होंने कहा है "जाणदि परसदि सव्वं पवहारणएण देवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।" नियमसार १५८ । ___ अर्थात् व्यवहार दृष्टिसे कहा जाता है कि केवली समी द्रव्योंको जानते हैं किन्तु परमार्थतः वह आत्माको ही जातना है। सर्वज्ञके व्यावहारिक ज्ञानकी वर्णना करते हुए उन्होंने इस बातको बलपूर्वक कहा है कि त्रैकालिक समी द्रव्यों और पर्यायोंका ज्ञान सर्वज्ञको युगपद् होता है ऐसा ही मानना चाहिए। क्यों कि यदि वह त्रैकालिक द्रव्यों और उनके पर्यायोंको युगपद् न जानकर क्रमशः जानेगा तब तो वह किसी एक द्रव्यको भी उनके समी पर्यायोंके साथ नहीं जान सकेगा। और जब एक ही द्रव्यको उसके अनंत पर्यायोंके साथ नहीं जान सकेगा तो वह सर्वज्ञ कैसे होगा। दूसरी बात यह भी है कि यदि अयोंकी अपेक्षा करके ज्ञान क्रमशः उत्पन्न होता है ऐसा माना जाय तब कोई ज्ञान निल्ल, क्षायिक और सर्वविषयक सिद्ध होगा नहीं । यही तो सर्वज्ञ ज्ञानका माहात्म्य है कि वह नित्य त्रैकालिक सभी विषयोंको युगपत् जानता है। किन्तु जो पर्याय अनुत्पन्न हैं और विनष्ट हैं ऐसे असबूत पर्यायोंको केवलज्ञानी किस प्रकार जानता है। इस प्रश्नका उत्तर उन्होंने दिया है कि समस्त द्रव्योंके सबूत और असबूत समी पर्याय विशेषरूपसे वर्तमानकालिक पर्यायोंकी तरह स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं। यही तो उस ज्ञानकी दिव्यता है कि वह अजात और नष्ट दोनों पर्यायोंको जान लेता है। ६९ मतिज्ञान । . आचार्य कुन्दकुन्दने मतिज्ञानके मेदोंका निरूपण प्राचीन परंपराके अनुकूल अवमहादि रूपसे करके ही संतोष नहीं माना किन्तु अन्य प्रकारसे भी किया है । वाचकने एक जीवमें अधिकसे अधिक चार ज्ञानोंका यौगपध मानकर मी कहा है कि उन चारोंका उपयोग तो क्रमशः ही होगा । अत एव यह तो निश्चित है कि वाचकने मतिज्ञानादिके लब्धि और उपयोग ऐसे दो मेदोंका खीकार किया ही है । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दने मतिज्ञानके उपलब्धि, भावना और उपयोग ये तीन मेद मी किये हैं। प्रस्तुतमें उपलब्धि लब्धिसमानार्थक नहीं है। वाचकका मतिउपयोग उपलब्धि शब्दसे विवक्षित जान पडता है । इन्द्रियजन्य ज्ञानोंके लिये दार्शनिकोंमें उपलब्धि शब्द प्रसिद्ध ही है। उसी शब्दका प्रयोग आचार्यने उसी अर्थमें प्रस्तुतमें किया है । इन्द्रियजन्य ज्ञानके बाद मनुष्य उपलब्ध विषयमें संस्कार दृढ करनेके लिये जो मनन करता है वह भावना है । इस ज्ञानमें मनकी मुख्यता है । इसके बाद उपयोग है। यहाँ उपयोग शब्दका अर्थ सिर्फ ज्ञान व्यापार नहीं किन्तु भावित विषयमें आत्माकी तन्मयता ही उपयोग शब्दसे आचार्यको इष्ट है ऐसा जान पड़ता है। प्रवचन १.४७। २ प्रवचन १.४८।वही १.१९। वही १.५०। ५वही १५1। प्रवचन.१.३०,५८... वही १.३९। स्वार्थमा० १.१.१पंचाखि. ४२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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